Saturday 11 August 2018

सकूँ की तलाश में

इस पिजरे में कितना सकूँ है
बाहर तो मुरझाए फूल बिक रहे है
कोई ले रहा गंध बनावटी
भागमभाग है व्यर्थ ही
एक जाल है;मायाजाल है
घर से बंधन तक
बंधन से घर तक
स्वतंत्रता का अहसास मात्र लिए
कभी कह ना हुआ गुलाम हैं
गुलामी की यही पहचान है।
मर रहे रोज कुछ कहने में जी रहे
सब फंसे हैं
सब चक्र में पड़े हैं

अंदर आने का रास्ता बड़ा आसां है
मैं तो आया था एक किरण के ताकुब में
तम्मना हुई कि पकड़ लूं
कि जान लूं स्पंदन उसका
न सका छू तो क्या
जिस जगह वो छुपी है वहां
अहसास मगर वास्तविक है
रोना भी,प्यार भी,मजा भी
हंसी भी किसी बच्ची सी है
ईर्ष्या भी बड़ी सच्ची है
और कोई जुआ नहीं
एक दिन मिल पाऊंगा उससे
ये भी निश्चित है
फिर देखना है
अंदर ही अंदर कौन किसको खींचेगा
एक निराकार और एक कफ़स
बड़े आराम से हैं।

-रोहित