taken from Google Image |
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
मैं तुम्हें देख रहा हूँ
मेरे साथ पढ़ती हुई
और साथ में ही देखता हूं
तेरे माथे पर बिंदी
छिदवाए नाक में नथ
छिदवाए कान में बालियां
गले में फसाई गयी सांकली
हाथों में पहनी चूड़ियां
पैरों में अटकाई गयी पायजेब
तब दुध में खटाई की तरह गिरती है ये सोच
कि क्या ये सब शृंगार ही है??
और तुम पढ़ती जाती हो मेरे साथ
चुप चाप बेमतलब सी।
तुमने मेरी मानसिकता के हिसाब से
अपनी आजादी को गले लगाया है
मैंने भी तेरी गुलामी का तुझे अहसास ना हो
बेहोश करने वाला एक जरिया निकाला है
"तुम सोलह शृंगार में कितनी खूबसूरत लगती हो"
और तेरा कद तेरे मन में मेरे बराबर हो जाता है।
-Rohitas Ghorela
सुंदर भाव संयोती, नारी दशा की कारुणिक तस्वीर दिखाती रचना।।।।।
ReplyDeleteलम्बे समय के बाद दिखे। टिप्पणियां भी दिखी। लाजवाब।
ReplyDeleteतुमने मेरी मानसिकता के हिसाब से
ReplyDeleteअपनी आजादी को गले लगाया है ....
नारी स्वतंत्रता का संपूर्ण सच इस एक पंक्ति में समा गया। नौकरी करो तो कौनसी, घूमने जाना है तो कहाँ, क्या लेना देना है..... सारे फैसले तो पुरूष ही लेता है और सुरक्षा की लुभावनी पैकिंग में पैक करके नारी को गिफ्ट कर देता है। स्त्री खुश भी, स्वतंत्र भी !!!
वाह कविराज हम तुम्हारे नवीन शब्दो के आकर्षण से प्रभावित हुए अपनी नज़र से ज़माने को आइना दिखाते रहना बेच ना देना अपनी सोच को गालिब अपनी इज्जत बनाये रखना
ReplyDeleteKeep it up
ReplyDeleteWow uncle, what a beautiful depiction of the state of women's life.
ReplyDeleteरोहितास जी, स्त्री मन को बहुल ही गहरे तक झकझोर देता है ये प्रसंग, बहुत ही कम शब्दों में सारगर्भित रचना..आपका मेरे ब्लॉग लिंक "गागर में सागर" पर भी हार्दिक स्वागत है..। सादर नमन..
ReplyDeleteवाह बेमिसाल रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर स्त्री को हमेशा भ्रम जाल में जकड़ा गया है
ReplyDeleteमैंने भी तेरी गुलामी का तुझे अहसास ना हो
ReplyDeleteबेहोश करने वाला एक जरिया निकाला है
"तुम सोलह श्रृंगार में कितनी खूबसूरत लगती हो"
और तेरा कद तेरे मन में मेरे बराबर हो जाता है।
अंतस् में उतरते चिंतनपरक भाव.. बहुत कम शब्दों मेंं सब कुछ कहती रचना ।
विचारोत्तेजक रचना रोहित जी।
ReplyDeleteपर मेरी जिज्ञासा मेरे कुछ प्रश्न हैं-
स्त्री श्रृंगार प्रतीकात्मक बंधन है? देह की परिधि मिटाकर, खड़ाकर पुरूष के साथ समानता की रेखा खींचने का प्रयास
मानसिकता भी बदल सकेगा ?
स्त्री का पक्ष रखने के लिए पुरूष को विपक्ष में रखना क्यों आवश्यक है?
आभार स्वेता जी,
Deleteआपके प्रश्नों के मैं उत्तर दे पाऊं ऐसी योग्यता नहीं रखता लेकिन चर्चा कर सकता हूँ..अगर ये सम्भव हो कि मैं सीधा सीधा उत्तर दे दूँ तो इस समाज में मुझ से बड़ा उझड़ आदमी न होगा.
स्त्री श्रृंगार प्रतीकात्मक बंधन नहीं बल्कि बंधन ही है. एतिहासिक दृष्टि से आदिकाल में आभूषणों की शुरुवात स्त्री और पुरुष दोनों में एक समान थी. धीरे-धीरे पुरुष ने वजनी आभूषणों को नकार दिया जबकि पुरुष प्रधान सोच ने स्त्री के आभूषणों को रीतिरिवाजों से जोड़ दिया- मंगलसुत्र या पायजेब इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं.
देह की परिधि पुरुष ने ही बनाई है जब ये मिट जाएगी तो दोगली मानसिकता का अस्तित्व ही नहीं रहेगा. इसकेलिए १९६० से दक्षिण देशों में महिलाएं कार्यरत भी हैं no-bra movement इसका एक छोटा सा उदाहरण है. आप देखते हो कि भारतीय महिलाओं के मुकाबले दक्षिण महिलाएं ज्यादा कार्यालय कार्यकारी और आजाद हैं.
मेरा मानना है कि किसी का पक्ष रखने के लये किसी अन्य को विपक्ष में रखना जरा भी आवश्यक नहीं. एक छोटे से उदाहरण से इसे समझने की कोशिश करते हैं- आजादी से पहले क्या हम अंग्रेजों के विपक्ष में थे? अगर आपका जवाब 'हाँ' है तो क्या आज भी भारत अंग्रेजों के विपक्ष में है?? ....नहीं.
दरअसल में हम विपक्ष में नहीं थे हम तो बस हमारा हक़ छीन रहे थे वो हक़ जो हमारा जन्मसिद्ध था जिस पर अंग्रेजों ने कब्ज़ा कर लिया था.
एक बार का विपक्ष हमेशा का विपक्ष होता है.
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 15 दिसम्बर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteमैंने भी तेरी गुलामी का तुझे अहसास ना हो
ReplyDeleteबेहोश करने वाला एक जरिया निकाला है
"तुम सोलह श्रृंगार में कितनी खूबसूरत लगती हो"
और तेरा कद तेरे मन में मेरे बराबर हो जाता है।
-- प्रसंशा आत्मतुष्टि हेतु एक प्रकार का हथियार है जिसकी मार दिलो दिमाग में छा जाने वाली होती है
बहुत सही
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-12-20) को "कुहरा पसरा आज चमन में" (चर्चा अंक 3916) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
अद्वितीय रचना, प्रभावशाली लेखन, उन्मुक्त भाव साहसिकता व स्पष्टवादिता का परावर्तन करते हैं।
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteस्त्रियों के भावनात्मक दर्द का आभास लिए सुंदर और प्रभावी रचना।
ReplyDeleteनारी वर्जना में सदियों रही है पर अब ये वर्जनाएं टूट रही है,
ReplyDeleteजेवर और साज सज्जा का आकर्षण तो नारी स्वयं नहीं छोड़ पा रही है उसे सुंदर दिखना है,उसे प्रशंसा चहिए , पुरुषों ने आभूषण के बंधन कभी तोड़ दिए हां गले में चैन कुछ अभी भी डाल लेते हैं या कान छिदवा लेते हैं ।
लड़कियों ने नाक छिदवाना कभी का बंद कर दिया पायल बिछिया भी देहात तक दिखते हैं सिंदूर बस तीज त्योहार और करवा चौथ, मंगलसूत्र भी अब बीस प्रतिशत औरतें पहनती हैं।
पर आज भी आभूषण ज्योंही मौका मिलता हैं और जिसके पास जितना होता है सब पहनना चाहती हैं,नारी में दिखावा पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा होता है।
वैसे बहुत से गहने संस्कार के रूप में हमारे मस्तिष्क में पैंठ चुके हैं वो भी मेरी पीढ़ी आखिरी होगी। अब बहुत कम पुरुष ही छद्म आचार से ये वर्जनाएं थोपता होगा ,और सहधर्मिणी मानती होगी।
वैसे सब के अनुभव भिन्न है।
मैंने भी ऐसी एक रचना लिखी थी कुछ महीनों पहले ।👇
भावों पर गौर किजिएगा ।
जहाँ नारी वर्जना में
कैसी तृष्णा की गगरी है
कितना भरलो कब भरती।।
थोप दूसरों पर प्रभुता यूं
लोग सदा खुश जो रहते
मूछ मरोड़े बैठ सभा में
बलवान स्वयं को कहते
भाव प्रवलता के निरंकुशी
फूटी हांड़ी सी झरती।।
संस्कारों के नाम दुहाई
आरोपित सदियों करते
कंगन हाथ नाक में नथनी
बाँध रूढ़ियों में रखते
बनी बेड़ियाँ ये पायल है
फिर भी छम छम जो करती
श्रृंगार लेख ऐसे लिखते
और बिठाते हैं पहरे
बनते ताज महल यादों में
बने प्रहारी तब गहरे
रहे वर्जना से अनुशासित
थोड़ा थोड़ा नित मरती।।
कुसुम कोठारी "प्रज्ञा "
मर्मस्पर्शी ।
ReplyDeleteविचारणीय आलेख रोहितास भाई।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन मन को छूती अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteअनछुए पहलू हैं
ReplyDeleteजिसको आपने शब्द दिए।
मन भी कितना बेईमान है ... सब कुछ करना चाहता है ...
ReplyDeleteमान जाना, मनाना, दिल को समझाना ...
बहुत ही सुन्दर और प्रभावशाली रचना.....
ReplyDeleteप्रिय रोहित , नारी श्रींगार उसके व्यक्तित्ब का अभिन्न हिस्सा रहा है | निश्चित रूप से नारी के श्रृंगार और उसके व्यक्तित्व को गुलाम करने के लिए उसे अति प्रंशंसा का अमृत भी पिलाया गया होगा किसी कुत्सित मानसिकता के पुरुष ने | पर शायद ये चिंतन अधूरा है | इस पर बहुत कुछ कहना चाहती हूँ पर कहा नहीं पा रही | स्त्री - पुरुष के बीच ये समानता और असमानता के दावे सदियों से चलते आ रहे हैं | कभी अबला समझ उसे उसके व्यक्तित्व की असहायता का बोध कराया गया तो कभी उसके भावनात्मकत शोषण के जरिये उसे देवी का देकर चुप कराया गया | एक ही माहौल में पलने वाले दो व्यक्तित्व इतने जुदा कैसे हो जाते हैं ये अनुत्तरित प्रश्न है | ये विषय बहुत बड़ी बहस का है |
ReplyDelete