उस शिखर दोपहर को ऐसा पहली बार देखा
न अँधेरा हुआ न ही धुप रही
जिस दोपहर उस तपते चौराहे पर
हमने आधा एक घंटे में तमाम बातों को याद किया
बिताये हुए पलों की बातें गर्म भाँप की तरह
तन-मन को जलाती रही
हमने मिलते रहने की झूठी कसमें न खाई
दोनों से अलविदा कहने का अभिनय भी न हुआ
तुम बस चली गयी.... नाक की सीध में
तुमने आम आशिक की तरह मुड़कर नहीं देखा
लेकिन मैं ओझल होने तक तकता रहा तुम्हें
चौराहे की चारों राहों पर दौड़कर, घूम-घुमाकर तुमसे एक बार फिर से मिलने की
अमर तमन्ना मन में लिए अब मैं
उस शहर को जिसने हमें मिलवाया
उस चौराहे को जहाँ हम अंतिम रूप से मिले
नाक की सीध वाली सड़क को जो जिंदगी की दरिया का अंतिम चित्र बन गई
उस उजले दिन को जो कभी न ढलेगा और न उदय होगा
- कह न सका "अच्छा तो मैं चलता हूँ"
इस बीच की स्थिति में अजर हो जाना हकीकत में नहीं होना और
कफ़नों में लिपटी छोटी छोटी उम्मीदों का भार तक दूरियों में बँट जाना जीना-मरना भी ना होना
अकेले बीच में ठहर जाना
रोज खालीपन के द्वारा ही निचोड़ा जाना
कहने को तो मैं चला भी आया हूँगोखरू पर चलने जैसा दुःख दायक है।
यहाँ तुम से बहुत दूर
लेकिन ये मेरा अंतिम रूप नहीं है,
हारे हुए आशिक की तरह
उन सब से अभी तक कह नहीं हुआ
"अच्छा तो मैं चलता हूँ।"