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खुद ही को खोकर
पूर्णता,लक्ष्य हासिल करना या
जिसे जीना समझे हैं हम
महज मरने की प्रक्रिया थी
पल पहले जो भी था
मैं ख़ाक ही तो हुआ उतना.
सब मरने में लगे है
रोज अपना अपना सफर
तय किये जाते हैं
जितना उग चुके हैं
उतना ही पतझड़ में
झड़ना चाहते हैं
फिर जीना क्या है??
एक बसंती आवरण बनता जाये
उसमें एक कली हो जो कभी खिले ना
पर खिलने को आतुर ही रहे,
एक सफर हो जो तय ना हो
एक अंतहीन संगीत
और राग लगते जाएँ,
जहां क्रियाओं का दोहराव न हो
एक दर्द जिसमें आराम ना हो
इजहार के बाद चैन ना हो
डर ऐसा हो जो लगता रहे,
जीतने वाले ही रहें, जीत ना हो-
वो मुख़्तसर सा लम्हा बना ही रहे,
बदलाव बन न पाए
ताज़गी अमिट हो.
शबनम हो जो सूखने से रहे
ठुलने से न जाये।
यानी एक ठहराव
हर एक ज़र्रे का-
(इसे परम् आत्मा से
मिलन न समझा जावे
ये तो नीरी भूख है
निरन्तर जीने की
लालचन! खोल दर खोल
की भटकन है।)
ये बात शून्य की है
बस शून्य हो जाना
शून्य भी ऐसा कि अथाह शून्य
यही तो मौलिकता है।
जहां से सवाल उठता है
मुखौटे के वजूद का
और उत्तर का कोई छोर नहीं।
- रोहित