Sunday 3 September 2023

संस्कृति - विकृति

मौन के बाद भी जो मौन रहे 
परिवर्तन, मद, अभिमान और  गुमान की 
उथल-पुथल के बाद भी 
शेष रह जाए वो मौन; है संस्कृति 
गर जाग उठा है संस्कृति-रक्षा का भाव
देख किसी का मात्र ढब - मज़हब अलग   
हो गए हों एक मनुज के खिलाफ़ 
उसके धर्म, रंगो-रूप के ख़िलाफ़  
या हों बंदगी, तौर-तरीकों के खिलाफ़ 
या आई हो आपकी बातों में नफ़रत अलग 
तो ये देश की संस्कृति नहीं, 
जानो, है आपकी अपनी विकृति- 
जो युगों से है ठोस बहुत 
नफ़रत-अपराध के अलवा कुछ सकी समेट नहीं.  

और आप हैं एक तुच्छ
आपका अंश तक रहेगा शेष नहीं 
आप के लिए संस्कृति का अथाह मौन रहेगा अछूत.
देश की संस्कृति ने तो स्वीकार किए हैं 
प्रत्येक नागरिक के कर्मों, धर्मों 
रंगों, बंदगी और तौर-तरीकों को 
यहाँ तक कि कुछ स्वार्थों को.

लेकिन जब आपकी बातों से- 
बलात चुपी के बाद जहनों में जहर रहे भरे 
देश का कोई हिस्सा हिंसक बना रहे
नागरिकों का हिंसा के बाद हिंसक बना रहना  
अक्ल का अँधा बना रहना 
क्रांति के बाद क्रांति को आतुर रहना, 
विकृति है, संस्कृति नहीं.  
संस्कृति - विकृति में 
अंतर मिटा देना अपराध है 
मौन के बाद भी मौन शेष रहे 
वही शांत, तरल, व्याप्त व्यापक 
देश  की संस्कृति है. 

- By 
रोहित 

Thursday 13 July 2023

अभी तक

मैं उजले दिन में चलने का अभ्यस्त  
उस शिखर दोपहर को ऐसा पहली बार देखा
न अँधेरा हुआ न ही धुप रही  
जिस दोपहर उस तपते चौराहे पर 
हमने आधा एक घंटे में तमाम बातों को याद किया 
बिताये हुए पलों की बातें गर्म भाँप की तरह 
तन-मन को जलाती रही 
हमने मिलते रहने की झूठी कसमें न खाई  
दोनों से अलविदा कहने का अभिनय भी न हुआ 
तुम बस चली गयी.... नाक की सीध में 
तुमने आम आशिक की तरह मुड़कर नहीं देखा 
लेकिन मैं ओझल होने तक तकता रहा तुम्हें  
चौराहे की चारों राहों पर दौड़कर, घूम-घुमाकर  
तुमसे एक बार फिर से मिलने की 
अमर तमन्ना मन में लिए अब मैं  
उस शहर को जिसने हमें मिलवाया 
उस चौराहे को जहाँ हम अंतिम रूप से मिले 
नाक की सीध वाली सड़क को जो जिंदगी की दरिया का अंतिम चित्र बन गई 
उस उजले दिन को जो कभी न ढलेगा और न उदय होगा 
- कह न सका "अच्छा तो मैं चलता हूँ" 
इस बीच की स्थिति में अजर हो जाना 
हकीकत में नहीं होना और 
कफ़नों में लिपटी छोटी छोटी उम्मीदों का भार तक दूरियों में बँट जाना   
जीना-मरना भी ना होना 
अकेले बीच में ठहर जाना
रोज खालीपन के द्वारा ही निचोड़ा जाना                                                                           
गोखरू पर चलने जैसा दुःख दायक है।   
कहने को तो मैं चला भी आया हूँ 
यहाँ तुम से बहुत दूर 
लेकिन ये मेरा अंतिम रूप नहीं है,  
हारे हुए आशिक की तरह 
उन सब से अभी तक कह नहीं हुआ 
"अच्छा तो मैं चलता हूँ।"