Friday, 27 April 2018

गम कहाँ जाने वाले थे रायगाँ मेरे (ग़जल 3)



       कितने दिन  हो  गये अफ़लातून से  भरे  हुए 
       यानी कब तक जियें खुदा को जुदा किये  हुए 
                                            
       उलझी जुल्फें हैं और जिन्दगी भी; एक तस्वीर में
       क्या यही बनाना चाहता  था  मै  इसे  बनाते हुए?

       दो लफ्जों से  अंदर  कितनी  है  तोड़  फोड़  मची  हुई
       तफ्तीशे-ख़तो-खाल हो,कब तक रह पाएंगे   सँवरे हुए  

       क्या मैंने छुपा के रखा था कुछ   उन  दिनों
       जो घट रहें हैं वापिश लम्हें बीते बिताये हुए

       मैं समन्दर में उतरूँ कि तुम किनारा ढूंढने लगो
       मारेगी  यही  बात  मोहब्बत  की  तड़पाते  हुए

       गम कहाँ जाने वाले  थे  रायगाँ  मेरे
       रखा है एक रिश्ता खुद से बनाये हुए

                                                                                                   -रोहित

अफलातून = बडप्पन कि शेखी बखेरने का विचार , तफ्तीशे-ख़तो-खाल=तिल और चमड़ी या नेन नक्शे कि जांच, रायगाँ= व्यर्थ।

Monday, 26 February 2018

पागलपन

सालों पहल
तेरी याद की वो याद है मुझे
जिसमें, बैठकर मैकदे में 
चुने की दिवार पे
गूगल से ली गयी
ग्लास के कांच से 
तेरा नाम कुरेद आया था
अगली शब को
उसी नाम के साथ
हज़ार बातें मनाने की की
फिर ग्लास छलका
फिर मनाने की की
आज फिर नहीं मानी
आज फिर छलकते जाम से नशा ना हुआ
तेरे खुदे हुए उस नाम के 
हर अक्षर के
हर घुमाव को छूकर
महसूस करता हूँ कि
छू रहा हूँ तुम्हें
तेरे थोड़ेसे खुले लबों को
खेल रहा हूँ खुले बालों से
चुम रहा हूँ गर्दन को
पकड़ रखी है कमर
खिंच रहा हूँ आलिंगन को
और मन की आँखों से 
दिखता है तेरा लावण्य
और कहता हूँ कल फिर आऊंगा
देखो कल मान ही जाना
यहां आने में बदनाम हो रहे हैं
और आज फिर आया हूँ
यही हुआ तो फिर कल भी आऊंगा।

रोहित

Sunday, 23 October 2016

रू-ब-रू

दिल जो  जलेगा जिन्दगी भर
इच्छाएं रह जाएगी आँखों में
गूगल इमेज से प्राप्त
खून खोलेगा मजबूरियों पर
दर्द में होगा बदन, और
होकर वास्तविकता से रूबरू
होगा इस सफर का अंत.

मगर देखेंगे कुछ लालची लोग 
सदियों बाद कि
कोनसा खजाना दफन है यहाँ
मिलेगा उनको उनका भविष्य
मिलेंगी अस्थियाँ मेरी
बिना दिल के
बिन आँखों की
बगैर खून के
खोखलेपन के साथ
सोचेंगे, कोई इंसान रहा होगा कभी
मौजूदा हालात में जो हैवान है.




Thursday, 9 October 2014

सब थे उसकी मौत पर (ग़जल 2)




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प्यार  की नियत, सोच, नज़र  सब  हराम  हुई
इसी सबब से कोई अबला कितनी बद्नाम हुई.

इंतजार, इज़हार, गुलाब, ख़्वाब,  वफ़ा,  नशा
उसे पाने की कोशिशें तमाम हुई सरेआम हुई

नहीं,तेरा पलट के देखना, तेरा पुकारना बरमल्ला
अपनी  मोहब्बत तो  तेरे चले  जाने  से आम  हुई

बढ़ी हुई  दूरियां  मोहब्बतों  में  तब्दील  हो गयी 
बच्चपन तो बच्चपन था जवानियाँ नीलाम हुई 

सब थे उसकी मौत पर आये हुए जो दिन में मरी 
न था तो कोई उस मौत पर जो उसे हर शाम  हुई.

"रोहित"

Thursday, 18 September 2014

पासबां-ए-जिन्दगी: हिन्दी

आँखों के सामने
जीते जी मार दिया है

कुछ 'हमपरवाजों' ने
ना समझी में
उसे जो जिन्दा है
मुझ में
और मेरे बाद
मेरे लिखित अलिखित अल्फाजों में,
मुमकिन है उनमें भी, जो
इसके सम्मान को कम लिखते हैं
गिरा लिखते हैं.

हिंदी अजर है
और अमर रहेगी
कैसी सोच, कैसे दिन हैं
ये भी बताना पड़ता है उनको
जिन्होंने इसे काबिले-रफ़ू समझा
उनकी पासबां है हिंदी
जब भी लिखने बैठता हूँ अल्फ़ाज़
मेरी जबीं को चूमती सी लगती है हिंदी
माँ की तरह
जो एक दुसरे में 
प्राण फूंकते रहते हैं.

        "रोहित"

हमपरवाज़= साथ में उडान भरने वाले, काबिले-रफ़ू = रफ़ू कराने योग्य,   पासबां = द्वारपाल, जबीं = ललाट


Thursday, 4 September 2014

रंगरूट

एकांत में बैठा
सुन्न शरीर  और

खुली आँखों से भी 
दिन की चहल पहल और 
रात के तारे भी
नजर नहीं आते.
ख्याल में डूबा है
कोई रंगरूट कि 
क्यों जान लेती है
सीमा पार से
आई गोलियां
हर रोज होता है
उल्लंगन
और बनता है तमासा
अपनों की मोत का
अभ्यास में भरे
जज्बे जोश को क्यों
बेकद्री में रखा गया 
क्यों लगता है जैसे
बैठें हों अपने ही घर में दुबक कर
और मुन्तजिर हो अपनी मौत का.
गरमा जाती है सियासत
चंद दिनों के लिए, मगर
रंगरूटों के

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हिम्मती  हौसलों और जज्बातों पर
बेख्याली के पर्दे डले है

उस पार
मखौल बना है हमारा
कमजोर और बुझदिली का
तभी तो हिम्मत हैं उनमे कुकृत्य की

ये दस्तक ही है ऐसी मौतों की
चंद परिवारों के अलावा
किसको फर्क पड़ेगा।

                                           By :-            
                                           रोहित


रंगरूट = नए सैनिक   मुन्तजिर = प्रतीक्षित


Friday, 5 July 2013

निशब्द

न जाने लोग,
कैसे लिख पाते हैं अपने भावों को
जब रहता हूँ नितान्त अकेला
कभी सिरहन सी,कभी मुस्कान सी
बस बहता हूँ भावों में
कलम को तो जैसे
किसी ने बांध दिया हो
एक बाढ़ सब कुछ बहाकर ले जाती है
वो शब्द, वो गहराइयाँ
बाद में रहता है
कोरा काग़ज, ताकती सी कलम
कुछ निशानों को
फिर लगता है कि
तुम में ये कला है ही नहीं
हकीकत सी, वास्तव सी।

Monday, 15 April 2013

परिचय : अनिल दायमा 'एकला'

माफ़ करना आप लोगों से एक सवाल हैं, क्या आप ज़ज्बात की गहराइयों में आँखे बंद कर बिना किसी हलचल के उतरें हैं? मैं जानता हूँ कि गहराइयाँ हमेशा डराती हैं पर जब आप 'गुरूजी' की गहराइयों में उतरेंगे तो जो आपको मिलेगा वो स्वाति नक्षत्र का मोती नहीं वो रत्न मिलेगा जिसे पाकर आप उन गहराइयों में ही डुबे रहना पसंद करेंगे।

अकेले रहते हैं पर सबके साथ रहते हैं क्योंकि इनका स्वभाव अन्तर्मुखी है। इसलिए इन्हें ब्लॉग जगत तक लाने में बहुत जतन करने पड़े।



उनके ब्लॉग व प्रथम पोस्ट का लिंक Anil Dayama 'Ekla' ,      : माँ

विनती:
मैं 'चर्चा मंच'  'नई-पुरानी हलचल''ब्लॉग बुलेटिन' से प्राथना करता हूँ कि कृपया करके इनके ब्लॉग का लिंक अपने ब्लॉग पर डालें ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक इनकी रचनाएँ पहुँच पाए।
                                                                          
                                                                             "आभार"

Thursday, 4 April 2013

आजादी रो दीवानों: सागरमल गोपा (३ नवम्बर १९०० -४ अप्रैल १९४६)


                (१)
महारावल री लुट रो ज्ञात हुयो
जद "जैसलमेर में गुंडा राज"
गोपा ने लोगां म' लिख बाँटी
प्रजा रे मन म' क्रोध जाग्यो
सोयो जैसल अब जाग्यो
जगां-जगां लोगां नै महारावल रो
बहिष्कार करयो।

महारावल नै जद पतो चल्यो
आ सारी करतुतां, ओ काम करयो है गोपा नै
आदेश दे दियो सैनिकां नै
पकड़ लायाओ उस गोपा नै।

जैसल सुं बाहर हा थे आपणों संघर्ष जारी राखण खातिर 
पर आणों पडयो आप'न पिता रो पिंड दान करण खातिर।

या एक धोखे री मूरत ही
जद थे धोखे सूं पकड़या गया।

जुलम थे सहयो घणों
जुलम बो ढाहायो घणों

थाणेदार हो जुलमी गुमान बड़ो
गोपा नै हो आजादी रो मान बड़ो।

गोपा पे' यातना री खबरां
हर रोज़ छपती ही अखबारां म'
बसग्या गोपा जैसल री जबानां म'

जद भेज्यो गयो गोपा पर जुल्मां री
सच्ची बातां रो पतो लगावण नै
तो पेलां ही आतुर होग्यो गुमान बैरी
गोपा पर तेल छिड़क आग लगावण नै

गोपा न' जिन्दा जला दियो हो जेल म'
एक अमर शहीद ओर होयो आजादी रे खेल म'

पर आ कुंणसी खबर आई जेल सुं
गोपा खुद न जला लियो तेल सुं  ??

सारो जैसल उमड़ पड्यो  वीर बहादुर देखण नै
पर लोगां न' विश्वाश ना होयो ...
गोपा आत्म-हत्या कोनी कर सके है
इसमें गुमान री कोई चाल हो सके है,
कठ सुं आयो तेल जेळ म'?
कठ सुं आई माचिस जेळ म'?
सगळा ने जवाब चाईजै  ...
इस कांड र' जाँचण री माँग हुई
तो पाठक ने सौंप्यो काम जाँचण रो
गुलाम हो पाठक,पाठक सुं आत्म-हत्या करार हुई।

उस रो बलिदान व्यर्थ ना गयो
बो सोई जनता री आँखयाँ खोल गयो
महारावल रे गुंडा राज रो अंत हुयो।

बो साच्चो हो
बो आजादी रो दीवानो हो।

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                ( २ )

किसकी गिरफ्त में हो तुम
एक अनबसी-सी है
लाखों आँखों का सपना हो
फिर भी ऐसी मुठ्ठी में कैद हो
जिसे कोई दूसरा नियंत्रित करता है
हम अभी संघर्ष में हैं
इंतजार तो करो
तुम्हें जल्द वहां से
आज़ाद करवायेंगे 'ऐ आज़ादी'
तुम्हारी ही बदौलत ये 'जवाहर'
कर्ज बाँटता हैं
कर वसूलता हैं
जुल्म करता हैं
हम तुम्हें इन हाथों से निकाल कर
सम्पूर्ण 'जैसल' में फैला देंगे
तुम किसी एक की जागीर तो नहीं ...
ऐ आज़ादी हम तेरे दीवाने हैं
तुम्हें कैद कैसे रख सकते हैं।

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(दोस्तों,
आज ही के दिन (4 अप्रैल 1946) श्री सागरमल गोपा जी अमर शहीद हो गये। बात उस समय की है जब जैसलमेर पर महारावल जवाहर सिंह का शासन हुआ करता था इसका शासन बड़ा ही निरंकुश और दमनात्मक था यहाँ तक की पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने और छापने पर रोक लगा रखी थी। तभी सागरमल गोपा जी ने "जैसलमेर में गुंडा राज" नामक पुस्तक प्रकाशित करा कर जनसाधारण में बाँट दी इस पुस्तक में महारावल के दमनात्मक शासन का वर्णन था। इससे जवाहर सिंह बहुत क्रोधित हुआ। सैनिकों द्वारा पिछा करने पर गोपा जी नागपुर चले गये। 1941 में जब सागरमल गोपा जी अपने पिता का पिण्ड दान करने के लिए वापस जैसलमेर आये तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा 6 वर्ष की कठोर कारावास की सजा सुनाई थी जेल में गुमान सिंह नामक थानेदार ने इन्हें अमानुषिक घोर यातनायें दी। जयनारायण व्यास ने पोलिटिकल एजेंट के माध्यम से सही जानकारी लेनी चाही। रेजीडेन्ट ने 6 अप्रैल 1946 को जैसलमेर जाने का कार्यक्रम बनाया। जब गुमान सिंह थानेदार को इसका पता चला तो उसने रेजीडेन्ट के जैसलमेर पहुँचने से पहले ही 3 अप्रैल के दिन गोपा जी पर तेल छिड़क कर आग के हवाले कर दिया और शहर में ये खबर फैला दी की गोपा जी ने आत्महत्या कर ली। गोपा जी से किसी को मिलने नहीं दिया और 4 अप्रैल को उनकी दर्दनाक मृत्यु हो गयी।

इस शहीद का रक्त व्यर्थ नहीं गया सारे शहर में "खून के बदले खून" के नारे लिख दिए गये।   
इस मृत्यु की जाँच करने के लिए गोपलास्वरूप पाठक कमेटी का गठन किया गया लेकिन इस कमेटी ने सागरमल गोपा जी की हत्या को आत्म-हत्या साबित कर दिया। लेकिन राष्ट्रिय प्रेम की चिंगारी अब अग्नि का रूप ले चुकी थी।जैसलमेर में मीठालाल व्यास ने  1945 में ही प्रजामंडल की स्थापना की  और 30 मार्च, 1949 को जैसलमेर वृहत राजस्थान में विलीन हो गया और महारावल जवाहर सिंह का दमनात्मक शासन का अंत हो गया।
सागरमल गोपा जी के सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने 1986 में एक डाक टिकट जारी की )

                                                                                                           -By
                                                                                                            रोहित 

Monday, 1 April 2013

किसान और सियासत

वो खेतों में
अपनी फसल को
दिन-रात की लगन से
अपने पसीने से सिंचता हुआ 
बड़ी मेहनत कर
पालता हैं ..
इस बार और हर बार
बस यही सब दोहराना
जैसे उसकी आदत सी बन गयी हो
पर इस मेहनत के बावजूद भी
वो कभी अपने हालात सुधार नहीं पाता
बाज़ार ये काम बख़ूबी करता है
उसकी मेहनत मन्दी की
भेंट चढ़ जाती है, और
मेहनताना महंगाई की
इस तरह ये बाज़ार
भूख को भूख बेच देता है।
 ये सियासी जाल हैं ,

इसी सबब से
कोई केवल पांच सालों में
ये मंत्री अपनी खुद की तक़दीर बदल लेता हैं
रहने को घर,चलने को कार खरीद लेता हैं।

तो इस तरह ये देश
कृषि प्रधान बनता हैं।

   By  
-रोहित