Monday, 5 August 2019

कायाकल्प

जब 'यह' क्रूर या निर्दयी है 
तब उन लोगों ने किनारा किया 
जिन्होंने मेरे शानदार दिनों में 
अपना भरण पोषण करवाया 
छोटी छोटी चीजों के लिए 
मोहताज़ रहे  इनको  
जरा भी नहीं तरसाया।
तरस आये मुझ पर
ये चाहत भी नहीं मेरी
अलावा इस धुंधली नजर की नजर में तो रहे
ये चंद पोषित जिव,
ताकि बता सकूं कि जो दाढ़ी बढ़ आई है 
शूलों की तरह चुभती है और झुंझ मचल रही है।  

फ्रॉम गूगल 

वो कमरा ना दे जिसमें कोई आता जाता ही ना हो 
पर  वही कमरा भयानक
इसमें रोशनी करना भी मुनासिब ना समझा उन्होंने 
यही अँधेरा मेरे लिए राहत की बात है।   

एक घड़ा खटिया से दूर
दवाइयां अंगीठी में ऊंचाई पर 
चश्मा भी इधर ही कहीं होगा 
ये सब मेरी पहुँच से दूर 
लेकिन मेरे लिए छोड़े।  
एक जर्जर देह 
जिसमें कोई शक्ति शेष न रही
और झाग के माफ़िक सांसें, 
मुझे ही मेरे लिए छोड़ दिया।

ऐसी हालात में भी एक काम 
मुझ से बहुत बुरा हुआ कि 
इन दिनों मैं मेरे पौत्र की नजर में रहा।   


छोड़ के जाने वाले मेरे अपने
तृप्त हैं , संतुष्ट हैं  और  हैं दृढ   
कि मेरा दुःख मैं अकेला उठाऊं
इस शांति से पहले की बैचैन सरसराहट को
सुने बगैर
देर किये बगैर  
उन्होंने तो धरती भी खोद ली होगी 
या सोचा होगा आसमान को काला करेंगे।
मुझे याद आता है 
घर के दरवाजे तक साथ आकर उनसे विदा लेना  
या उनको पाँव पर खड़ा करना
या उनकी जरूरतों को उनकी गिरफ़्त में करवाना 
सहारा देना....हूं ... सहारा बनना....
ओ जीवनसाथी तू याद आया 
अब तो मुस्कुरा लूँ जरा। 

                                                                          -रोहित