जब 'यह' क्रूर या निर्दयी है
तब उन लोगों ने किनारा किया
जिन्होंने मेरे शानदार दिनों में
अपना भरण पोषण करवाया
छोटी छोटी चीजों के लिए
मोहताज़ रहे इनको
जरा भी नहीं तरसाया।
तरस आये मुझ पर
ये चाहत भी नहीं मेरी
अलावा इस धुंधली नजर की नजर में तो रहे
ये चंद पोषित जिव,
ताकि बता सकूं कि जो दाढ़ी बढ़ आई है
शूलों की तरह चुभती है और झुंझ मचल रही है।
फ्रॉम गूगल |
वो कमरा ना दे जिसमें कोई आता जाता ही ना हो
पर वही कमरा भयानक
इसमें रोशनी करना भी मुनासिब ना समझा उन्होंने
यही अँधेरा मेरे लिए राहत की बात है।
एक घड़ा खटिया से दूर
दवाइयां अंगीठी में ऊंचाई पर
चश्मा भी इधर ही कहीं होगा
ये सब मेरी पहुँच से दूर
लेकिन मेरे लिए छोड़े।
एक जर्जर देह
जिसमें कोई शक्ति शेष न रही
और झाग के माफ़िक सांसें,
मुझे ही मेरे लिए छोड़ दिया।
ऐसी हालात में भी एक काम
मुझ से बहुत बुरा हुआ कि
इन दिनों मैं मेरे पौत्र की नजर में रहा।
छोड़ के जाने वाले मेरे अपने
तृप्त हैं , संतुष्ट हैं और हैं दृढ
कि मेरा दुःख मैं अकेला उठाऊं
इस शांति से पहले की बैचैन सरसराहट को
सुने बगैर
देर किये बगैर
उन्होंने तो धरती भी खोद ली होगी
या सोचा होगा आसमान को काला करेंगे।
मुझे याद आता है
घर के दरवाजे तक साथ आकर उनसे विदा लेना
या उनको पाँव पर खड़ा करना
या उनकी जरूरतों को उनकी गिरफ़्त में करवाना
सहारा देना....हूं ... सहारा बनना....
ओ जीवनसाथी तू याद आया
अब तो मुस्कुरा लूँ जरा।
-रोहित
सत्य को उजागर करती मार्मिक रचना
ReplyDeleteबेहद हृदयस्पर्शी रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-08-2019) को "मेरा वजूद ही मेरी पहचान है" (चर्चा अंक- 3419) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 6 अगस्त 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत गहरे भाव लिए अर्थपूर्ण रचना ...
ReplyDeleteएक घड़ा खटिया से दूर
ReplyDeleteदवाइयां अंगीठी में ऊंचाई पर
चश्मा भी इधर ही कहीं होगा
ये सब मेरी पहुँच से दूर
लेकिन मेरे लिए छोड़े।
एक जर्जर देह
जिसमें कोई शक्ति शेष न रही
और झाग के माफ़िक सांसें,
मुझे ही मेरे लिए छोड़ दिया।...बहुत ही सुन्दर सृजन सर
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन नये भारत का उदय - अनुच्छेद 370 और 35A खत्म - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteप्रिय रोहितास जी , बहुत ही मार्मिक कथा काव्य लिखा आपने | मैं इसे स्मृति चित्र कहना चाहूंगी जिसे आपने कविता में सम्पूर्णता से ढाला है | ये जीवन चित्र किसी का भी हो सकता है | अपनों के सताए किसी स्नेहिल पिता की असहायता बहुत मर्मान्तक है | अपनों के छल की वेदना और जीवन की अंतिम बेला में साथी की अनायास याडी बहुत मर्मस्पर्शी है | निशब्द हूँ |
ReplyDeleteअद्धभुत
ReplyDeleteमुझे याद आता है
ReplyDeleteघर के दरवाजे तक साथ आकर उनसे विदा लेना
या उनको पाँव पर खड़ा करना
या उनकी जरूरतों को उनकी गिरफ़्त में करवाना
सहारा देना....हूं ... सहारा बनना....
ओ जीवनसाथी तू याद आया
अब तो मुस्कुरा लूँ जरा। .....
मर्मस्पर्शी ...किसी वृद्ध पिता की व्यथा को उसकी पूरी सम्पूर्णता के साथ शब्दों में बाँध दिया है आपने । अप्रतिम सृजन ।
जीवन के संध्या काल में अपनों से मिले दर्द को हृदय स्पर्शी अभिव्यक्ति के द्वारा सदृश किया है आपने ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर मर्म को भेदता सृजन ।
बहुत सुन्दर। स्वयं शून्य
ReplyDeleteवाह!!सुंदर भावाभिव्यक्ति !
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी
ReplyDeleteया उनको पाँव पर खड़ा करना
ReplyDeleteया उनकी जरूरतों को उनकी गिरफ़्त में करवाना
सहारा देना....हूं ... सहारा बनना....
ओ जीवनसाथी तू याद आया
अब तो मुस्कुरा लूँ जरा।
छोटों को सहारा देना फर्ज और कर्तव्य है बड़ो का बृद्ध माता-पिता का सहारा बनना ये संस्कार सीखना भूल रहे है बच्चे आजकल....
बहुत ही हृदयस्पर्शी लाजवाब रचना आपकी...
सुन्दर
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी बहुत बढ़िया..... अंतिम चार लाइन में सारा सार
ReplyDeleteआ गया है !
असाध्य वृद्धावस्था का मार्मिक चित्रण !
ReplyDeleteहार्दिक आभार रोहितासं जी। 🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteवाह !बेहतरीन चित्रात्मक सृजन।
ReplyDeleteछोड़ के जाने वाले मेरे अपने
ReplyDeleteतृप्त हैं , संतुष्ट हैं और हैं दृढ
कि मेरा दुःख मैं अकेला उठाऊं
इस शांति से पहले की बैचैन सरसराहट को
सुने बगैर
देर किये बगैर
उन्होंने तो धरती भी खोद ली होगी
या सोचा होगा आसमान को काला करेंगे।
वाह बस वाह
क्या बेहतरीन अंदाज़ से दास्तान कह दी हैं आपने।पढ़ते-पढ़ते कितने सारे यादो के पन्ने आँखों से गुज़र गये। ये नज़्म आपकी गहराई में ले जाती हैं लब्जो के परे भी कुछ लब्ज़ हैं जो पाठक खुद में खुदसे ढूंढ ले।
शुक्रिया इस यात्रा के लिए।
एक घड़ा खटिया से दूर
ReplyDeleteदवाइयां अंगीठी में ऊंचाई पर
चश्मा भी इधर ही कहीं होगा
ये सब मेरी पहुँच से दूर
ye meri psandidaa linee rahin rchnaa me...
bdhaayi ik achhi rchnaa ke liye
नई पोस्ट ….शब्दों की मुस्कराहट पर आपका स्वागत है
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