Wednesday, 21 February 2024

तुम हो तो हूँ

तेरे बाद 
ये शांत पते यूँ ही आँधियों में फड़फड़ाते रहेंगे 
तेरे बाद 
ये शांत नदी बरसात के दिनों यूँ ही शोर मचाती रहेगी 
तेरे बाद 
किसी कच्चे रस्ते की धूल सफ़ेद पोशाकों पर पड़ती रहेगी 

तेरे बाद 
गाँव के नुक्क्ड़ों पर ताश की बाजियां 
चार लोगों की हथाइयाँ 
भूख मारने को भिनभिनाते लोग
गिले-शिकवों में यूँ ही बसती रहेगी बेबसी  
कुछ भी तो न ठहरेगा 

मैं शांति के इस उद्धण्ड स्वभाव को कोसता हुआ 
नदी के किनारे से उठ कर 
मिटटी से सनी सफ़ेद पोशाक पहने 
कच्चे रस्ते पर चल दूंगा 
समाज के सारे दायरे तोड़ दूंगा 
तेरे बाद...  
                                     By- Rohit

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Sunday, 3 September 2023

संस्कृति - विकृति

मौन के बाद भी जो मौन रहे 
परिवर्तन, मद, अभिमान और  गुमान की 
उथल-पुथल के बाद भी 
शेष रह जाए वो मौन; है संस्कृति 
गर जाग उठा है संस्कृति-रक्षा का भाव
देख किसी का मात्र ढब - मज़हब अलग   
हो गए हों एक मनुज के खिलाफ़ 
उसके धर्म, रंगो-रूप के ख़िलाफ़  
या हों बंदगी, तौर-तरीकों के खिलाफ़ 
या आई हो आपकी बातों में नफ़रत अलग 
तो ये देश की संस्कृति नहीं, 
जानो, है आपकी अपनी विकृति- 
जो युगों से है ठोस बहुत 
नफ़रत-अपराध के अलवा कुछ सकी समेट नहीं.  

और आप हैं एक तुच्छ
आपका अंश तक रहेगा शेष नहीं 
आप के लिए संस्कृति का अथाह मौन रहेगा अछूत.
देश की संस्कृति ने तो स्वीकार किए हैं 
प्रत्येक नागरिक के कर्मों, धर्मों 
रंगों, बंदगी और तौर-तरीकों को 
यहाँ तक कि कुछ स्वार्थों को.

लेकिन जब आपकी बातों से- 
बलात चुपी के बाद जहनों में जहर रहे भरे 
देश का कोई हिस्सा हिंसक बना रहे
नागरिकों का हिंसा के बाद हिंसक बना रहना  
अक्ल का अँधा बना रहना 
क्रांति के बाद क्रांति को आतुर रहना, 
विकृति है, संस्कृति नहीं.  
संस्कृति - विकृति में 
अंतर मिटा देना अपराध है 
मौन के बाद भी मौन शेष रहे 
वही शांत, तरल, व्याप्त व्यापक 
देश  की संस्कृति है. 

- By 
रोहित 

Thursday, 13 July 2023

अभी तक

मैं उजले दिन में चलने का अभ्यस्त  
उस शिखर दोपहर को ऐसा पहली बार देखा
न अँधेरा हुआ न ही धुप रही  
जिस दोपहर उस तपते चौराहे पर 
हमने आधा एक घंटे में तमाम बातों को याद किया 
बिताये हुए पलों की बातें गर्म भाँप की तरह 
तन-मन को जलाती रही 
हमने मिलते रहने की झूठी कसमें न खाई  
दोनों से अलविदा कहने का अभिनय भी न हुआ 
तुम बस चली गयी.... नाक की सीध में 
तुमने आम आशिक की तरह मुड़कर नहीं देखा 
लेकिन मैं ओझल होने तक तकता रहा तुम्हें  
चौराहे की चारों राहों पर दौड़कर, घूम-घुमाकर  
तुमसे एक बार फिर से मिलने की 
अमर तमन्ना मन में लिए अब मैं  
उस शहर को जिसने हमें मिलवाया 
उस चौराहे को जहाँ हम अंतिम रूप से मिले 
नाक की सीध वाली सड़क को जो जिंदगी की दरिया का अंतिम चित्र बन गई 
उस उजले दिन को जो कभी न ढलेगा और न उदय होगा 
- कह न सका "अच्छा तो मैं चलता हूँ" 
इस बीच की स्थिति में अजर हो जाना 
हकीकत में नहीं होना और 
कफ़नों में लिपटी छोटी छोटी उम्मीदों का भार तक दूरियों में बँट जाना   
जीना-मरना भी ना होना 
अकेले बीच में ठहर जाना
रोज खालीपन के द्वारा ही निचोड़ा जाना                                                                           
गोखरू पर चलने जैसा दुःख दायक है।   
कहने को तो मैं चला भी आया हूँ 
यहाँ तुम से बहुत दूर 
लेकिन ये मेरा अंतिम रूप नहीं है,  
हारे हुए आशिक की तरह 
उन सब से अभी तक कह नहीं हुआ 
"अच्छा तो मैं चलता हूँ।"

                                                     




Saturday, 25 December 2021

मगर...



मैंने चाहा  
एक साथ 
एक घर 
ढेरों बातें 
और उसकी बाँहों में सिमट जाना 
मगर... चलो कोई बात नहीं 

मैंने चाही 
पहली सी मुहब्बत 
महीने में कुछ ही बातें 
मुलाकातें ना ही सही 
मगर... चलो कोई बात नहीं 

मैंने चाहा 
वार-त्योहार पर कम से कम 
हाल चाल से वाकिफ़ होना 
दीदार ना ही सही 
मगर... चलो कोई बात नहीं 

आख़िर मैंने चाहना कम किया 
वो कहती भी रही कम का 
मगर कम भी तो कितना कम होता 
अब कम क्या विलुप्त का पर्याय होगा 
मगर.... चलो कोई बात नहीं 

मुहब्बत जाया ही सही 
नजदीकियाँ बदसूरत ही सही
कोंपल का फूटना ही सही 
मगर... चलो कोई बात नहीं।  

-Rohit
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Tuesday, 9 March 2021

अर्थों के अनर्थों में

हमें भुलवा दिया जाता है
अर्थों के अनर्थों में क्या छुपा है
एक दिन की महिमा के अर्थ से 
364 दिनों के अनर्थों का क्या हुआ?
या सुना दिया जाता है अनर्थों के अर्थ को निथार के
अनर्थों के लाभ को कोई जान न ले 
इसलिए अर्थों की सीमा के बाहर की दुनियां नष्ट कर दी गई
ये घाव न नासूर बनता है न भरता है।
विडंबना के घाव को कुरेदते वक्त
खून नहीं पानी निकलता है
क्योंकि इस चूल्हे में जलने वाली आग,
राख तक के निशाँ गहरे दबा दिए गए।

प्रकृति में समाज निर्माता आदमी ने
समाज में प्रकृति की कोई व्यस्था न की
इसने खुद के सिवाय सभी को मृत चमड़ी माना
वो भूल गया ईडन गार्डन से साथ में निकली औरत को।
वहां से आज तक के सफ़र में
कौनसी मानसिकता का संकीर्ण मोड़ आया
जो आपको इतना आगे पीछे होना पड़ा,
किस बात का भय था और किसको था
जो बराबर की हस्ती तेरी मुठ्ठी में आ गयी।

वो सब कुछ बन गयी तेरे लिए-
तेरे लिए क्यों बनी वो?
सागर भी, झील भी
बहती नदी भी, मोरनी भी
फूल भी, सावन की सुहावनी बूंद भी
मगर औरत औरत न बन पाई
वो पर्दे में क्यों आ गयी
क्यों जिस्म छुपाना केवल इसे ही जरूरी हो गया
हमें भुलवा दिया जाता है
अर्थों के अनर्थों में क्या छुपा है।
  By- ROHIT

Thursday, 4 March 2021

गुजरे वक़्त में से...

हम कितनी तेज़ी से गुजरे 
उस गुजरे वक़्त में से
बगैर मुलाकात किये इज़हार तक पहुंच गए
नतीजन विफलता तक पहुंच गए
कितनी चीजें हाथ में से निकल गयी
तेरा साया तक छूने से जो खुशियां थी; फिसल गई,
बालों की चांदी तक निकल गयी
हमारे ख़र्च होते हर एक लम्हा ख़्वाब बने
एक सिगरेट उंगलियों में फंसी रह गयी।
जिसे उंगलियों में रखनी चाही वो क़लम
और कश्मकश बयाँ  न कर सकने वाले अल्फ़ाज़ से भरा मैं
बस निब है जो टूटती रहती है
क़लम है जो झगड़ती रहती है।

आसमाँ की जगह सागर देखा
सागर की जगह आसमाँ देखा
मैंने तैर कर चांद पर पहुंचना चाहा
और तड़फ ये कि तारों पर ही ठहर गए
तमाम उम्र हक़ीक़त ने परेशान न किया
ख़्वाबों ने लूट लिया
ख़्वाब जो तेरा था ज़िंदगी बन गया
ज़िंदगी जो मेरी थी  ख़्वाब बन गया।
हम बस उसी तरह से गुजर जाएंगे
एक ही तो रस्ता है वहीं से निकल जाएंगे।
                -ROHIT


Friday, 1 January 2021

समानता २

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मुझे रिवाजों का हवाला ना दें 
मुझे अंधेरों वाली मशालें ना दें 
एक जुर्म जिसे दुनिया का हर एक 
आदमी रिवाजों के हवाले से करता हो- तो 
मैं पूछता हूँ क्या वो जुर्म; जुर्म नहीं रहता 
मैं कहता हूँ विवाह एक जुर्म है 
इस जुर्म की सज़ा क्यूँ नहीं 
हर बार डोली में चहकती-चीखती चिड़िया ही क्यों?
बेटी को बाप से अलग करना जुर्म है 
माँ के घर बेटी का मेहमां हो जाना जुर्म है 
घर को उसका अपना घर न होने देना जुर्म है 
जबरदस्ती का अन्यत्र समायोजन जुर्म है 
पली बडी लडकी पर अधिकार करना 
घिनोना ही नहीं जुर्म है

तो फिर दुनियां कैसे बढ़ेगी?
सवाल का जवाब रिवाजों के हवाले से क्यों सोचें 
सोचें कि प्रजनन और प्यार दोनों अलग विषय हैं 
हर बार के विवाह में प्यार की सुविधा नहीं 
हर बार के विवाह में प्रजनन की सुविधा है
आप अपनी पशुता को पशुता क्यों नहीं मानते  
मैं पूछता हूँ ये जुर्म नहीं तो क्या है? 

पूछना चाहोगे कि विवाह की रस्म कैसे हो?
मैं कहता हूँ मानसिक तैयारी जरूरी है
ये जो जुर्म है उसे कबूल करना जरूरी है 
रस्मो-रिवाज में घुन लग गये ये मानना जरूरी है  
सवाल-जवाब के खातिर आमने-सामने होना जरूरी है
अइयो मिलने मैं मिल जाऊंगा जिंदगी में से जहर फांकते हुए 
अंधेरों में तीर चलाते हुए 
मुझे रिवाजों का हवाला ना दें 
मुझे अंधेरों वाली मशालें ना दें. 

-ROHIT
 






 

Sunday, 13 December 2020

समानता

taken from Google Image 

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मैं तुम्हें देख रहा हूँ
मेरे साथ पढ़ती हुई
और साथ में ही देखता हूं 
तेरे माथे पर बिंदी
छिदवाए नाक में नथ
छिदवाए कान में बालियां
गले में फसाई गयी सांकली
हाथों में पहनी चूड़ियां 
पैरों में अटकाई गयी पायजेब
तब दुध में खटाई की तरह गिरती है ये सोच 
कि क्या ये सब शृंगार ही है??
और तुम पढ़ती जाती हो मेरे साथ
चुप चाप बेमतलब सी।
तुमने मेरी मानसिकता के हिसाब से 
अपनी आजादी को गले लगाया है 
मैंने भी तेरी गुलामी का तुझे अहसास ना हो 
बेहोश करने वाला एक जरिया निकाला है 
"तुम सोलह शृंगार में कितनी खूबसूरत लगती हो"
और तेरा कद तेरे मन में मेरे बराबर हो जाता है।   

-Rohitas Ghorela 

Sunday, 20 September 2020

आत्मनिर्भता


सरकार; आप समझते हो उतना आसान तो नहीं                    
काम से बे-काम होकर आत्मनिर्भर होना आसाँ तो नहीं  
हम आदमीयों का सिर्फ आत्मनिर्भर होना
पेट में धंस रही आँतड़ियों को ओर अंदर तक धकेलना हो सकता है
आत्मनिर्भरता यानी आलोचनाओं का मर जाना हो सकता है
आलोचनाओं का मरना यानी 
लोकार्पण के समय अवसाद से भर जाना हो सकता है
जब अवसाद एकांत का परिणाम है
तो हमें किस दिशा की ओर बढ़ना है, सरकार?
किसी का साथ छोड़ देने से आत्मनिर्भता नहीं आती
सभी का साथ ही इसकी प्रयोगशाला है
सरकारें अपने मुद्दे 
आत्मनिर्भरता की मुर्दा
खिड़की पर लगे कफ़न जैसे पर्दे से ढंक दे
हम नागरिक जो कुछ काम के थे
बेक़ाम होकर -
हमारा पसीना जो त्वचा के गहरे में नमक बन चुका है
इसी कफ़न से पोंछने का अभिनय करेंगे
अभी हमें मात्र चहरे से खुश रहना सिखाया जाए
अभी हम चहरे से और मन से एक हैं
ये आप के लिए खतरा है।
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Tuesday, 7 April 2020

एक भी दुकां नहीं थोड़े से कर्जे के लिए


जनाबे जॉन एलिया साब की एक गज़ल आज के इस दौर पर कितनी सटीक बैठती है आप ही देख लीजिये इस गजल के चंद शेर-

ऐश-ए-उम्मीद   ही   से   ख़तरा   है
दिल  को  अब  दिल-ही  से  ख़तरा  है

जिस के   आग़ोश   का   हूँ   दीवाना
उस के   आग़ोश   ही   से   ख़तरा   है

है  अजब  कुछ  मोआ'मला  दरपेश
अक़्ल  को   आग ही   से  ख़तरा  है
  
शहर-ए-ग़द्दार  जान  ले  कि  तुझे
एक   अमरोहवी   से   ख़तरा   है

आसमानों  में   है   ख़ुदा   तन्हा
और  हर  आदमी  से   ख़तरा   है

अब  नहीं  कोई   बात   ख़तरे  की
अब सभी  को  सभी  से  ख़तरा  है




कोरोना जैसी महामारी के बारे में अब तक आपने खूब पढ़ लिया होगा और खूब ही जान लिया होगा। इस वक्त तक जब मैं ये लिख रहा हूँ; भारत में 4908 मामले और 137 मौते हो चुकी है।  इसमें कोई संदेह नहीं की बहुत सारे लोग ठीक भी हुए हैं; अब तक भारत में 382 लोग रिकवरी कर चुके हैं।  लेकिन इसके रोकथाम के सन्दर्भ में जाने-अनजाने में हमसे बहुत बड़ी गलतियां हो रही है। और ये गलतियां मैंने अपने अनुभव से जाना है। ये वो गलतियां है जो हर कहीं लिखी या सुनाई नहीं जा रही है।  गलतियाँ जो आमतौर पर हम कर रहे हैं वो ये कि--
1. रुमाल और मास्क में मास्क को ही चुने- बहुत से लोग मास्क की बजाय रुमाल बाँध लेते हैं। ये सही है कि रूमाल मास्क जैसा काम करती है लेकिन हम वही रुमाल हमारे कमरे तक ले जाते हैं, वही रुमाल बिस्तर पर डाल देते हैं, बहार से आते ही हम हाथ तो धो लेते है लेकिन उसी रुमाल से हाथ पूंछ लेते हैं।  बहुत से लोग वही रुमाल अपनी माँ या पत्नी से धुलाते हैं जिससे खतरा बढ़ जाता है।
2. हजामत ना करवाएं- वैसे तो सैलून या ब्यूटी पार्लर जैसी दुकाने बंद हैं लेकिन फिर भी नाई  (जाती सूचक शब्द ना समझा जावे)  का काम करने वाले घरों में जा-जा कर काम कर रहे हैं।  ऐसे काम करने वाले व्यक्ति सबसे ज्यादा संक्रमित हो सकते हैं क्यूंकि ये एक ऐसा काम है जिसे दूरी बनाकर नहीं किया जा सकता। इसलिए इनसे काम ना करवाएं ये आप और आपके नाई की सुरक्षा के लिए बेहतर होगा।  दाड़ी या केश बढा लो कुछ दिन- हो सकता है ये आपके रूप को ओर बेहतर बना दे।
3. गम्भीरता से लेने की जरूरत- सुरक्षा ही इलाज़ है, लॉकडाउन का सख्ती से पालन करें (हमें आने वाले 2 महीनों तक इसी लॉकडाउन की बहुत सख्त जरूरत है)  बहादुरी दिखाने की जरूरत नहीं है। जो भी लॉकडाउन का पालन नहीं करता है वो देशद्रोही ही नहीं वरन सम्पूर्ण वैश्विक सभ्यताद्रोही है। खुद को घर के कामों में, रसोईघर में, गार्डनिंग में या मनोरंजन में व्यस्त रखें। एक डॉक्टर के अंदाजे के मुताबिक भारत में यह आगे आने वाले अप्रेल-मई के दिनों में 1.5- 2 लाख लोगों को प्रभावित कर सकती है।
घबराएँ नहीं ये खुद को खुद तक ले जाने का सही समय है।

आइये अब ले चलता हूँ साहित्यिक रसपान यानि मेरी नई रचना की तरफ़-

एक भी दुकां नहीं थोड़े से कर्जे के लिए 


गलियाँ   जो   बनी   थी   सूनी  रहने    के    लिए
क्योंकर   किया   आबाद   एक   दफ़े   के    लिए

तुम तो क्या, कोई भी तो किसी का सानी नहीं है
खींचा दम तैयार है मगर दूर तक  जाने के  लिए

ए   मेरी  ज़िंदगी   की   आबो-हवा  पास  तो  आ
अब  तो  एक  ही  साँस   है  बाकी मरने के  लिए

तू  उस  कफ़स  से   छुटा   कर   आ   सकती है
मैं  भी  बैताब  हूँ  मेरे  कफ़स  में  लाने के लिए

नज़र   ही   क्या   बुरी  होती  हम  पर   उनकी
एक    सांस   ही   काफ़ी   है   मारने   के  लिए

बे-रूहों   में,   है    किस   बख़्त    की   बेवफ़ाई?
तुम   ना   मिलते   सिर्फ़     मिलने    के   लिए

अंदर शोर  मचाया गले  मिलने  को  किसी  ने
गला हद्द तक उतर  आया  बन्द  होने  के लिए

हर दुकाँ बन्द है आँखों  की  तरह  नशेबाज की
क्या एक भी दुकाँ नही थोड़े  से  कर्ज़े   के  लिए


- Rohit