उस सिलवटों भरे बिस्तर से
उस सोच से जिसमें तू रहता है
तन्हाई वाले ख्यालों से
उस तबियत से
बगैर तेरे जो रफ्ता रफ्ता बिगड़ रही है
विचारहीन खुली आँखों से,मध्य चांदनी रात में-
तन्हा बीते लम्हें और दो कस की उस लत से
जीना जहाँ से दुर्भर हो गया है -से
बटोर कर देखना नींद मेरी
सुखकर दमड़ी में कहीं दरारें न पड़ जाएँ तेरी
उक चुक समय की दवा दारू
पर असर तेरा,बेअसर सब.
दो कस धुंए के छलों से
नोचना जिन्दगी
छलकते जाम से गटकना जिन्दगी
तुम मुझ से जानो
तेरे बिन जो गुजरी जिन्दगी
जिन्दा लेकिन बेदम जिन्दगी,
आँख में पानी,गला भारी
कांपते होठों से बोलती जिन्दगी,
रात को सोती दुनियां जागता मैं
एक कोने में बीमार पड़ी जिन्दगी,
पहली किरन से लोगों की ये चहल पहल
उगता सूरज और ये मेरी डूबती जिन्दगी,
तेरी "ना" में न चाहते हुए मेरी मंजूरी
होके मजबूर मजबूरी में खिलती जिन्दगी-
हाँ
मौजूद है खिलखिलाती हंसी में तू
पागलपन में तू
और ये फूटते सिर में सिर दर्द सी जिन्दगी
मगर तौबा करूं तो इस जिन्दगी से कैसे
रूह में समाई 'तू' जिन्दगी
तेरा इंतजार जिन्दगी.
मौत से भी मौत आएगी नहीं
रूह से तो आदत जाएगी नहीं
गर है हकीकत पुनर्जन्म की
यहीं कहानी होगी और यही जिन्दगी.
--रोहित--
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(2013 में लिखी गयी रचना जिसे भुला दिया गया था आज वापिश पढने को मिली तो शेयर कर रहा हूँ.
उस वक्त लेखन कला से मै बिलकुल अनजान था.)
हिंदी दिवस पर मेरी रचना पासबां-ए-जिन्दगी: हिन्दी