क्या ही इलाज़ करें खुद का
खुदी से हो नहीं सकता बुलन्द इतना
सहारा मिले तो मिले सकूं
झर रहा है इंसां
गिर गए नाखून
पिंघल रही उंगलियां
रीत गए हैं हाथ
फिर भी ये बेमुद्दा खालिद कितना?
ढाँचा है कि गिरने वाला है
और ताक रहें हैं सब मुझे,
खिलखिलाते हुए
सांचे हाथ में लिए हुए
भूल चुके हैं शिल्पकारी
जब याद आएगी
आ चुकी होगी बारी इनकी
फिर कोई हंसेगा, खिलखिलायेगा
बग़ल में खाली साँचा हाथ लिए
छा जाएगा मौन और देखेगा
हज़ारों चीखों भरी शांति, तब तक
निकल पड़ेगी आंखे बिना पलक
खून की एक धार बांधे
जा पहुंचेगी उसके पैरों तले
जो आसीन है ऊंचे पद पे
जिसके विध्वंस ही मनोरंजन है
जिसके अपने थे बेरहम मुद्दे
जिनमें उलझे रहे तुम
जिनमें भूले निज कर्म, लड़े तुम
मगर वो होले से कुचलता आया है
हर आख़िरी समय की जागृत आंख को
इस तरह फैल ना सकी
तेरी मेरी क्रांति।
- रोहित
खुदी से हो नहीं सकता बुलन्द इतना
सहारा मिले तो मिले सकूं
झर रहा है इंसां
गिर गए नाखून
पिंघल रही उंगलियां
रीत गए हैं हाथ
फिर भी ये बेमुद्दा खालिद कितना?
ढाँचा है कि गिरने वाला है
और ताक रहें हैं सब मुझे,
खिलखिलाते हुए
सांचे हाथ में लिए हुए
भूल चुके हैं शिल्पकारी
जब याद आएगी
आ चुकी होगी बारी इनकी
फिर कोई हंसेगा, खिलखिलायेगा
बग़ल में खाली साँचा हाथ लिए
छा जाएगा मौन और देखेगा
हज़ारों चीखों भरी शांति, तब तक
निकल पड़ेगी आंखे बिना पलक
खून की एक धार बांधे
जा पहुंचेगी उसके पैरों तले
जो आसीन है ऊंचे पद पे
जिसके विध्वंस ही मनोरंजन है
जिसके अपने थे बेरहम मुद्दे
जिनमें उलझे रहे तुम
जिनमें भूले निज कर्म, लड़े तुम
मगर वो होले से कुचलता आया है
हर आख़िरी समय की जागृत आंख को
इस तरह फैल ना सकी
तेरी मेरी क्रांति।
- रोहित
Google image से लिया गया। |
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 07 नवंबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुंदर और सटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteरोहित, अपनी कायरता पर सोचने के लिए मजबूर करती है तुम्हारी कविता !
ReplyDeleteइन ऊंची कुर्सी वालों का दिल पाताल में और दिमाग आसमान में होता है. इनका बस चले तो हिटलर की तरह ये सर उठाने वालों को गैस चैम्बर में भिजवा दें. अब ज़रुरत है कि इनको इनके ही बुने गए जाल में फांस कर इन्हीं के बनाए गए गैस चैम्बर्स में इन्हें डाल दिया जाए.
लेकिन इस काम के लिए तैयार कौन होगा?
जी,
ReplyDeleteशिल्पकारी का मतलब केवल शिपलकारी से नहीं है बल्कि एक दूसरे को सहारा देने का मतलब है, जिसका जो काम है वह काम बिना किसी जाल में फंस कर करते रहने का मतलब है।
इस तरह अपने अपने क्षेत्र के शिल्पकारों (लेखक, फिल्मकार, इंजीनियर, अध्यापक, गृहिणी, पुलिश, डॉक्टर) को अंधता छोड़कर तैयार होना पड़ेगा, हमें ही तैयार होना पड़ेगा।
आभार।
ReplyDeleteढाँचा है कि गिरने वाला है
और ताक रहें हैं सब मुझे,
खिलखिलाते हुए
सांचे हाथ में लिए हुए
भूल चुके हैं शिल्पकारी
बेहतरीन समसामयिक मुद्दों पर चिंतन के नए आयाम देती रचना!!!
बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteउत्तम,सटीक और सार्थक पंक्तियाँ।
ReplyDeleteबहुत खूब कहा आपने
सादर नमन सुप्रभात 🙏
मुद्दे तो मानो सुरसा का मुंह खोले ताक रहे हैं विधि व्यवस्था की कारगुजारीयों को भांप रहे हैं.. हर तरफ जबरदस्त अंधेरा छाया हुआ है अगर अंधेरे में खुद के ही हाथ को हम पकड़ नहीं पा रहे हैं तो समझ सकते हैं कि हमारी वर्तमान हालात कहां उलझी हुई है... वर्तमान परिस्थितियों पर मारक व्यंग करती और एक कवि के हृदय में चल रही हलचल को आपने बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया लिखते रहिए
ReplyDeleteखून की एक धार बांधे
ReplyDeleteजा पहुंचेगी उसके पैरों तले
जो आसीन है ऊंचे पद पे
जिसके विध्वंस ही मनोरंजन है.... वाह! यथार्थ को उघेड़ती रचना। बधाई और आभार।
यथार्थ एवं सटीक अभिव्यक्ति ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-11-2019) को "भागती सी जिन्दगी" (चर्चा अंक- 3513)" पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं….
-अनीता लागुरी 'अनु'
बहुत बढ़िया!!!!
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteगहन वैचारिक प्रस्तुति ।
ReplyDeleteसवाल उठता है सबसे ताकतवर इंसान इतना निर्बल क्यों है ,सोचने लायक बात है इंसान दुर्बल होता है या परिस्थितियां।
सार्थक सृजन।
आपका लेखन सदैव गहन चिन्तन लिए होता है । बेहतरीन और उम्दा सृजन रोहित जी ।
ReplyDeleteनिःशब्द करती हुई रचना ,वैचारिक सोच को।नमन
ReplyDeleteजिसके विध्वंस ही मनोरंजन है
ReplyDeleteजिनमें भूले निज कर्म, लड़े तुम
मगर वो होले से कुचलता आया है
वाह बहुत ही अदभुत।
इन लाइन्स पे तो पूरा पन्ना लिखा जा सकता हैं।
बहुत सोचने पर मजबूर कर दिया आपने।
नई कविता के नए आयामो को बख़ूबी उतारा हैं।समझने वाले के लिए बहुत कुछ हैं जो न समझ पाए तो शायद उसे कुछ भी ना मिले।
आभार
बहुत सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteझर रहा है इंसां
ReplyDeleteगिर गए नाखून
पिंघल रही उंगलियां
रीत गए हैं हाथ
फिर भी ये बेमुद्दा खालिद कितना?-----सारयुक्त पंक्तियाँ !
कितने ही कडुवे सच भभक के गिर नए नीचे ...
ReplyDeleteइंसान मूक है देखता है बस ... हां कई बार सामूहिक हो के कुछ जाता है ... कई बार खुद ही जाग जाता है ... गहरी रचना ...
छा जाएगा मौन और देखेगा
ReplyDeleteहज़ारों चीखों भरी शांति, तब तक
निकल पड़ेगी आंखे बिना पलक
खून की एक धार बांधे
जा पहुंचेगी उसके पैरों तले
बेहतरीन कटु यथार्थ को अभिव्यक्ति देती रचना
ढाँचा है कि गिरने वाला है
ReplyDeleteऔर ताक रहें हैं सब मुझे,
खिलखिलाते हुए
सांचे हाथ में लिए हुए
भूल चुके हैं शिल्पकारी
सटीक बहुत ही खूबसूरत शब्द पिरोये हैं आपने
झर रहा है इंसां
ReplyDeleteगिर गए नाखून
पिंघल रही उंगलियां
रीत गए हैं हाथ
फिर भी ये बेमुद्दा खालिद कितना?
बहुत खूब प्रिय रोहिताश ,आज के कड़वे सच को सिरे से उघाडती आपकी ये रचना एक आक्रांत कवि के अंतर्द्वंद्व का आइना है | सत्ताधारी जब विध्वंस को ही मनोरंजन समझ बैठते हैं और सभी सार्थक मुद्दों को बेरहमी से कुचलने को तत्पर रहते हैं तो कोई समाधान ना निकलेगा और न कोई क्रान्ति पनपने की उमीद पनपती है | इसी तरह एक भाई दुसरे दूसरे भाई से लड़भीड़ कर भाईचारे को खत्म कर डालता है |अंतिम पंक्तियाँ एक असहाय निश्वास सी निशब्द कर देती हैं --------
इस तरह ना फ़ैल सकी
तेरी मेरी क्रांति !!!!!!!बहुत गहरी रचना जो सवाल उठाती हुई निशब्द कर देती है | हार्दिक शुभकामनायें |
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ReplyDeleteWhat a great post!lingashtakam I found your blog on google and loved reading it greatly.shani chalisa It is a great post indeed. Much obliged to you and good fortunes. keep sharing.
ReplyDeleteसांचे हाथ में लिए हुए
ReplyDeleteभूल चुके हैं शिल्पकारी
बहुत ही खूबसूरत और सटीक शब्द पिरोये हैं
समसामयिक मुद्दों पर गहरी रचना,उम्दा सृजन रोहित जी
Hey thank you!!! I was seeking for the particular information for long time. Good Luck ?
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