मैं बाहर निकलता हूँ
और उठा लेता हूँ
किसी की भावना से
खेलता हुआ विषय
जिस पर कविता बननी होती है
मैं अपराधी हूँ कविता तेरा
जो इस विषय पर तुझे लिख रहा हूँ
वो सहसा ही फूट पड़ी मेरे सामने
पति के जाने का दुःख तो भूल चुकी
वो समझ चुकी है कि जीना है
लेकिन हर रोज की घुटन व धीमी मौत
उसके लिए भारी पड़ रहा है
निढाल होने को मजबूर सी
उसके गालों की फटन; मावठ के उपरांत
बरसाती दरिया की तलहटी से मिलती है।
मुस्कान लेकिन मरी नहीं है चेहरे की
यही मुस्कान ज़माने को शूल लगती है
एक विधवा हंस नहीं सकती
वो पकवान बना नहीं सकती
मैले-कुचैले कपड़े पहने रहो तो सुहावनी लगती है
चुपचाप सहन करो तो अच्छी लगती है
बतिया ले किसी से तो गुलछर्रे उड़ाती है
इस ज़माने ने अनाथा को
छुई-मुई का बूटा बना दिया है
छू ले कोई तो मुरझाना जरूरी कर दिया है।
क्या नहीं चाहिए एक विधवा को...
कि उसकी माहवारी आने से रह गयी है ?
कि उसकी छातियों का भार कम हो गया है ?
कि उसके सिर के बाल कट गये हैं ?
कि वो चलने से रही और
पैरों में कुछ भी पहनने की जरूरत ना रही?
कि गिद्धों की नज़र में बदन बदन ना रहा?
सब की सब जरूरतें ज्यों की त्यों हैं
फिर वो खुद बाहर निकल क्यों नहीं सकती
निजी जरूरतों का सामान उसे कौन लाकर दे
एक पुरुष से मंगवाए तो बेहया हो जाती है
स्त्री से कहे तो बेईज्जत पुकारी जाती है।
शक की नजरों से बचाना खुद को
क्या सातवाँ अधिकार नहीं बन सकता?
ज़माने पर वो बोझ नहीं रहना चाहती
मगर ज़माने को वो बोझरूपी अच्छी लगती है
इसी जमाने में मैं भी हूँ
जो उसकी चीखों को सुन पाया- और कर क्या रहा हूँ
बस तुझे लिख रहा हूँ
लानत है मुझ पर और ढेरों बार है
मुझे पता है तू छप जाएगी
किसी किताब की आखिरी पन्ने पर
एक उम्मीद है कि
कोई समाज का नुमाइंदा इसे पढ़ेगा-
तो मैं कविता लिख रहा हूँ
दोष रहित स्त्री को कोई आजाद करवाएगा-
तो मैं कविता लिख रहा हूँ
किसी के क्रूर रीती रिवाजों पर चोट देगी-
तो मैं कविता लिख रहा हूँ
हाशिये में बंद जिंदगी
कोरे कागज पर उतरेगी तो मैं तुझे लिख रहा हूँ-
मैं मानता हूँ खूबसूरती को बेदाग ही रखना
एक निजी जुर्म है मेरी दोस्त
फिर भी माफ़ी चाहता हूँ।
तुझे जनने के लिए
मैंने किसी की भावनाओं को
तेरा विषय बनाया
तू मुझे माफ़ कर देना
मगर पड़ी रहना उस आखिरी पन्ने पर
नींव समझी जाएगी या इमारत कोई
ति के मरने के बाद स्त्री को विरासत में ये समाज जिल्लत,घुटन, अत्याचार भरी ही जिंदगी देता है . ..
ReplyDeleteकड़वी मगर सचि बात
विधवा से अच्छा औरत का सुहागन मरना ही उचित है
बहुत सुन्दर बखान किया है विधवा के मनोभावों का 🙏
बहुत ही चिंतनीय विषय को कविता में समेटा है आपने, बधाई
ReplyDeleteज्यादा बड़ी होने के कारण पूरी नही पढ़ी लेकिन लगता है बहुत दर्द भरी कविता है😊😊😊
ReplyDeleteउद्वेलित और आक्रोश किये ... बहुत गहरी पर सच बात बेबाकी राखी है इस कविता में ...
ReplyDeleteविश्व जीवन और कुछ हद तक नारी का जीवन भी इन्ही सब शब्दों के दायरे में कैद हो के रह जाता है ... समाज पे ठहाके लगता ...
ReplyDeleteमुस्कान लेकिन मरी नहीं है चेहरे की
यही मुस्कान जमाने को शूल लगती है
एक विधवा हंस नहीं सकती
वो पकवान बना नहीं सकती
मेले कुचले कपड़े पहने रहो तो सुहावनी लगती है -
भावप्रधान संवेदनशील रचना है मित्र।
कविता वही है, जो दूसरों के दर्द को समझ सके.. जब पत्रकारिता बोझ लगती है, जब ठगा सा महसूस करता हूँ, तो मैं भी कभी- कभी यह गीत गुनगुना लेता हूँ-
अपने लिये जिये तो क्या जिये
तू जी, ऐ दिल, ज़माने के लिये
जी, वैधव्य का भार जो स्त्री ढो रही होती है, असल में वो स्त्री ही इन सब का असली दर्द जानती है। जब सारे अधिकार उससे छीन लिए जाते हैं और ओड़ा दिया जाता है सफेद श्याह रंग उसके बदन पर, वाकई में बहुत तकलीफदेह होती है। उनकी हालात देखकर पर आपने अपनी कविता के जरिए उनके दर्द को दुख को यहां लिखा यह बहुत बड़ी बात है। काफी हद तक बदलाव आ रहे हैं इस क्षेत्र में लेकिन फिर भी गांव देहातों में विधवा महिलाओं की स्थिति बहुत चिंताजनक है... स्त्री दशा पर लिखी गई आपकी बहुत ही भाव प्रधान और सार्थक रचना
ReplyDeleteगहराई लिये।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में शुक्रवार 01 नवम्बर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपकी नज़र को सलाम।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-11-2019) को "यूं ही झुकते नहीं आसमान" (चर्चा अंक- 3506) " पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं….
-अनीता लागुरी 'अनु'
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आभार आपका
Deleteसौभाग्य मेरा। 🙏
तू मुझे माफ़ कर देना
ReplyDeleteमगर पड़ी रहना उस आखिरी पन्ने पर
नींव समझी जाएगी या इमारत कोई
मुझे नहीं पता बस कि मैं तुझे लिख रहा हूँ।
किसी की व्यथा को यूं ढाल देना शब्दों में जैसे झेला-भोगा दर्द अभी अभी पाठक ने करीब से देख कर महसूस किया है .. आपकी संवेदनशीलता दर्शाता है । समाज के उपेक्षित कोने पर मर्मस्पर्शी सृजन रोहित जी ।
कड़वा सत्य समेटा है कविता में, रूढ़ियों से बाहर आना हर कोई चाहता है मगर कोई हिम्मत नहीं करता रूढ़ि तोड़ने की
ReplyDeleteयही सत्य कविता है
ReplyDeleteजो दूसरों के लिये प्रकट हो
ये अवश्य समझी जायेगी
नहीं समझ में आएगी तो अनर्थ होगा
ये कलम बेजुबानों को स्वाबलंबन देगी
और मूर्खों को उनकी मूर्खता दिखाने वाला आईना!
सादर
हमारे समाज की बहुत ही कडवी सच्चाई को शब्दों में सँजो दिया है अपने ....। स्त्री विधवा है तो उसमें उसका क्या दोष ? समझ नहीं पाई अभी तक ।
ReplyDeleteबेहद भावपूर्ण कविता।
ReplyDeleteमध्यवर्गीय परिवार की युवा विधवा की विडंंबनापूर्ण जीवन का मर्मस्पर्शी चित्रण है- काश उसे भी नारीत्व के स्वाभाविक अधिकारमिलें !
ReplyDeleteविधवा स्त्री के दर्द को बाखूबी रचा हैं आपने ,ये सच हैं कि आज भी विधवाओं के साथ बहुत बुरा व्यवहार होता हैं,खास तौर पर हम औरते ही उस पर ज्यादा अत्याचार करती हैं ,उससे एक अछूत सा महसूस कराते हैं ,पर बदलाव हो रहा भले ही पढ़ेलिखे समाज में ही सही पर बदलाव की शुरुआत हो चुकी हैं। अभी हमारे ही घर में नियति ने बहुत बड़ा कुठाराघात किया हैं मात्र 48 साल की उम्र में ही मेरे बहनोई गुजर गए हैं ,पर हमने ना टूटने दिया ना झुकने दिया ,उसे स्वलम्बी बनाया हैं ,वो अपनी जीवन के नई पारी की शुरुआत सहजता से कर पा रही हैं। स्त्री दर्द को वया करती मार्मिक रचना ,सादर नमन
ReplyDeleteसमाज को आईना दिखाती रचना ।
ReplyDeleteहालांकि अब हर जगह ऐसी स्थिति नहीं रही बहुत भारी बदलाव आए हैं पिछले दस सालों में शहरी और पढ़े लिखे लोगों की सोच बदली है, आज पुनर्विवाह, स्वावलंबन उच्च शिक्षा जैसी बहुत सी राहें खुली है और बहुत से परिवारों में तो उनके रहने के किसी भी ढ़ंग से कोई अनुमान नहीं लगा सकता उनके वैधव्य का ।
फिर भी कुछ क्षेत्रों में अभी भी स्थिति सोच जनक है ।
गहन प्रस्तुति।
मार्मिक
ReplyDeleteवैधव्य के दर्द को महसूस कराती अति मार्मिक रचना ! समाज बदल रहा है पर बहुत धीरे-धीरे, आज जरूरत है ऐसे साहित्य की जो इन कुरीतियों पर कुठाराघात करे
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर रोहितास जी. समाज की अन्यायी और अमानुषिक सोच पर करार तमाचा मारा है आपने. एक विधवा को खुद में साहस जुटाना होगा, उसे खुद में आत्मविश्वास जगाना होगा, उसे खुद को अपने पैरों पर खड़ा होगा. तभी ये बेबसी का, इस बेचारगी का, अभागी कहलाने का बिल्ला, वह अपने गले से उतार पाएगी.
Deleteवाह ...कविता के विषय पर ही कविता और वो भी इतने संवेदनशील भाव लिए | सुंदर लिखा |
ReplyDeleteबहुत बढ़िया तरीके से आपने अपने
ReplyDeleteउद्वेलित मन को अभिव्यक्ति दी है. बहुत खूब.
नारी जीवन का कड़वा सच व्यक्त करती बहुत ही सुंदर रचना।
ReplyDeleteमैं बाहर निकलता हूँ
ReplyDeleteऔर उठा लेता हूँ
किसी की भावना से
खेलता हुआ विषय
जिस पर कविता बननी होती है
pehale to ye lines likhne ke liye dheron bdhaayi swikaar kren.........mere liye ye lines hi ik puri sarthak kavita hain ....bdhaayi
apne ik aise vishay ko likhaa jise har naari kisi naa kisi roop me zarur jeeti he
hmmmm
rchnaa bahut achhi hui he
ik ajeeb si udaasi de jaane wali rchnaa magr bahut steek bhi
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ReplyDeleteवाह।
ReplyDeleteझकझोर देने वाली रचना हैं।एक दम अलग तरीके से इस सदियो पुराने कशमकश पर कटाक्ष किया हैं अपने।कई बार पढ़कर देख और समझने की कोशिश की।एक तरह से शब्दों और विषयो की शून्यता से कविता गुजर रही हैं आजकल मगर एहसासों को नई जुबान और नई परिभाषा देना कोई आपसे सीखे।मेरा सौभाग्य की इतने दिनों से कुछ लिख पड़ नही पाया और जब कुछ पढ़ा तो इतना बेहतर।बहुत बहुत अच्छा लगा।स्वमं भी कुछ लिखने का मन हो रहा हैं।
हाशिये में बंद जिंदगी
कोरे कागज पर उतरेगी तो मैं तुझे लिख रहा हूँ-
मेले कुचले कपड़े पहने रहो तो सुहावनी लगती है
चुप चाप सहन करो तो अच्छी लगती है
बेहतरीन
प्रिय रोहिताश , आपकी ये रचना समाज की कुत्सित , संकुचित सोच पर गहरा , करारा प्रहार है | एक कवि की रचना समाज का आईना होनी चाहिए , तभी वह शब्दों से क्रांति रचने की उम्मीद रख सकता है | सदियों से विधवाओं ने , पति के अवसान के बाद मौत सरीखी जिन्दगी जी है | पति की मौत में उनका क्या दोष था , ये आजतक कोई ना समझा सका और ना ही एक नारी खुद समझ सकी |मैंने अपने गाँव में कई बूढी दादियों को देखा , जो बाल विधावाएं थी | सूती सफ़ेद साड़ी में लिपटा उनका जीवन कब बचपन से बुढ़ापे में बदल गया , वे जान ही ना पायीं | कईयों ने तो उस इंसान की शक्ल को आँख भर देखा ही नहीं था , जिसके नाम पर वे वैधव्य का भार ढो रही थीं | जीवन को रंगहीन होने का दुःख एक तरफ तो टेढ़ी नजर से तकते जमाने की संकुचित सोच का दुःख एक तरफ | उसके व्यक्तित्व पर उछलते लांछनों के प्रहार उसे कितना छलनी करते होंगे किसी को पता नहीं | असल में समाज ने नारी के मूक और बंध्या रूप को आर्दश माना है सदियों से |और विधवा नारी के पास कोई संबल होता भी कहाँ है ?
ReplyDeleteपर आज कोई ही अभागी लड़की ऐसी होगी जो इस प्रकार की दुर्दशा से गुजरती हो | शिक्षा जागरूकता फैला रही है | बेटियां शिक्षित और आत्म निर्भर होंगी तो वे स्वयं को उपेक्षा और तिरस्कार से बचा सकेंगी |सार्थक रचना जो सरल शब्दों में गहरी बात कहती है | सस्नेह शुभकामनायें |
एक स्त्री जीवन के अनेक पड़ावों से गुजरती है जीवनभर बहुत कुछ सहती है। पर विधवा होना जीवन का वो अध्याय होता है जिसे कोई भी स्त्री पढ़ना नहीं चाहती है एक पति के न रहने से जीवन का हर पल अनचाहे रुप से बेरंग हो जाता है एक ऐसे पाप का दंड आजीवन भोगने को मजबूर होती है जो उसने कभी सोचा तक न होता है।
ReplyDeleteबेहद मार्मिक अभिव्यक्ति लिखी है आपने भावपूर्ण प्रश्न मन को मथते है कि हम सिर्फ़ उनका दर्द लिख सकते है पन्ने पर उनके लिए क्या कर सकते है पर रोहित जी ऐसी मर्मांतक विवशताएँ पढ़कर उनकी पीड़ा महसूस कर उनके साथ समानुभूति का व्यवहार तो कर ही सकेगें न कुछ संवेदनशील पाठक।
बिना लिखे भी कैसे रहा जाये?
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील मन है आपका रोहितासजी, ऐसी अभिव्यक्ति तभी निकलती है कलम से।
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