कितने दिन हो गये अफ़लातून से भरे हुए
यानी कब तक जियें खुदा को जुदा किये हुए
उलझी जुल्फें हैं और जिन्दगी भी; एक तस्वीर में
क्या यही बनाना चाहता था मै इसे बनाते हुए?
दो लफ्जों से अंदर कितनी है तोड़ फोड़ मची हुई
तफ्तीशे-ख़तो-खाल हो,कब तक रह पाएंगे सँवरे हुए
क्या मैंने छुपा के रखा था कुछ उन दिनों
जो घट रहें हैं वापिश लम्हें बीते बिताये हुए
मैं समन्दर में उतरूँ कि तुम किनारा ढूंढने लगो
मारेगी यही बात मोहब्बत की तड़पाते हुए
गम कहाँ जाने वाले थे रायगाँ मेरे
रखा है एक रिश्ता खुद से बनाये हुए
-रोहित
अफलातून = बडप्पन कि शेखी बखेरने का विचार , तफ्तीशे-ख़तो-खाल=तिल और चमड़ी या नेन नक्शे कि जांच, रायगाँ= व्यर्थ।
वाह ! बेहतरीन अश्यार..जिन्दगी की कशमकश को बयाँ करते हुए..
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-04-2017) को "यह समुद्र नहीं, शारदा सागर है" (चर्चा अंक-2954) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका बहोत बहोत शुक्रिया मयंक जी🙏
Deleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जज साहब के बुरे हाल “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteलाजवाब भाई साहब 👌👌
ReplyDeleteबहुत सुंदर !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteBahut sundar!
ReplyDeleteमैं समन्दर में उतरूँ कि तुम किनारा ढूंढने लगो
ReplyDeleteमारेगी यही बात मोहब्बत की तड़पाते हुए
गम कहाँ जाने वाले थे रायगाँ मेरे
रखा है एक रिश्ता खुद से बनाये हुए---
खुद से रिश्ते में बंधे मन का खुद से लाजवाब संवाद और मर्मस्पर्शी भाव | आदरणीय रोहित जी हर शेर अपने आप में शानदार और जानदार है | मेरी हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार हों |