Friday 28 September 2018

रंगसाज़

सफेद जिंदगी
एक माँ अनेक रंगों की
एक इंतजार रंगीन हो जाने का
एक उतावलापन रंगों को जनने का.
मिलन हो उनसे तो पनपे-
वो रंग जो तितलियाँ
अपने पंखों में सजाये रखती है.
वो सिंदूरी
जो सूरज ढल आई शाम को
आसमाँ की गालों पर
हक से लगा देता है. 

चाँदी सा रंग,महताब
जो स्याह शब को भी
बनाकर चाँदनी
मोहब्बत करता है.

आसमानी आसमां का
सागर में झलके हैं
जैसे रंग चढ़ा हो एक दूजे का.

वो खुदरंग भी
जो यहाँ लिखूं
अल्फ़ाज़ हू-ब-हू तुम-से
तो जमाना मुझे रंगसाज़ समझे.
आ.....।

by 
-ROHIT
from google image 

Wednesday 19 September 2018

आत्मसात

चलो ले चलता हूँ 
घिसे-पिटे हवाई पट्टी से 
एक घाटी की जानिब.
होंगी तुझे आसमां की चाह 
मगर ये भी चाह निज मन की नहीं
हवाबाज़ी है सो बहकावे हैं भ्रम है
या भागना है निज पीड़ा से.
व्यर्थ की कोशिश है
उड़ने को पंख तुझे मिले ही नहीं.

उड़ान तो निजत्व से झगड़ा है 
होना है आत्मसात तो गहराई में उतर. 
संदली हवा मदहोश करे है 
एक प्रेरणा उतरते जाने की.
यहाँ मिलो दर्द से गले तुम 
बैचेनियों की दरिया में गोते लगाओ 
जहाँ अथाह शांति है 
और गहरे में उतरते राह पर  
थकान को भी आराम करते पाओ 
अब गुलों में अजब सुगंध है
पतों की सरसराहट भी धुन है.

जब कल का महसूस होना 
आज दिखाई देने लगे-
शरीर कुछ त्याग रहा 
ग़म ,परेशानी,पीड़ा,विचार 
सब बीती बातें हुईं 
गहराई के घोर अंधकार में 
जो खो गयीं.
बोझ छंटने लगा
बाद इसके शरीर भी छूट गया 
पार तुमने पा लिया 
प्रकाश पुंज सामने है 
अब जो तुम हो 
बहिष्कृत इंसा 
पारदर्शी बुद्धत्व प्राप्त
ज्ञान रहित.

by 
-रोहित 






Wednesday 12 September 2018

बेकरारी से वहशत की जानिब

उस सिलवटों भरे बिस्तर से
उस सोच से जिसमें तू रहता है
तन्हाई वाले ख्यालों से
उस तबियत से
बगैर तेरे जो रफ्ता रफ्ता बिगड़ रही है
विचारहीन खुली आँखों से,मध्य चांदनी रात में-
तन्हा बीते लम्हें और दो कस की उस लत से
जीना जहाँ से दुर्भर हो गया है -से
बटोर कर देखना नींद मेरी
सुखकर दमड़ी में कहीं दरारें न पड़ जाएँ तेरी
उक चुक समय की दवा दारू
पर असर तेरा,बेअसर सब.

दो कस धुंए के छलों से
नोचना जिन्दगी
छलकते जाम से गटकना जिन्दगी
तुम मुझ से जानो
तेरे बिन जो गुजरी जिन्दगी
जिन्दा लेकिन बेदम जिन्दगी,
आँख में पानी,गला भारी
कांपते होठों से बोलती जिन्दगी,
रात को सोती दुनियां जागता मैं
एक कोने में बीमार पड़ी जिन्दगी,
पहली किरन से लोगों की ये चहल पहल
उगता सूरज और ये मेरी डूबती जिन्दगी,
तेरी "ना" में न चाहते हुए मेरी मंजूरी
होके मजबूर मजबूरी में खिलती जिन्दगी-

हाँ
मौजूद है खिलखिलाती हंसी में तू
पागलपन में तू
और ये फूटते सिर में सिर दर्द सी जिन्दगी
मगर तौबा करूं तो इस जिन्दगी से कैसे
रूह में समाई 'तू' जिन्दगी
तेरा इंतजार जिन्दगी.
मौत से भी मौत आएगी नहीं
रूह से तो आदत जाएगी नहीं
गर है हकीकत पुनर्जन्म की
यहीं कहानी होगी और यही जिन्दगी.

--रोहित--

from Google image 
(2013 में लिखी गयी रचना जिसे भुला दिया गया था आज वापिश पढने को मिली तो शेयर कर रहा हूँ.
उस वक्त लेखन कला से  मै बिलकुल अनजान था.)

हिंदी दिवस पर मेरी रचना पासबां-ए-जिन्दगी: हिन्दी