हम जो हैं
वर्तमान राजतंत्र के नितारे गए लोग
जब हमने राजतंत्र से ऊब कर
विद्रोह शुरू किया
अधिकारों की मांग रखी
समानता की बात हुई-
तब अविरल विरोद्ध को रोकना
इन राजतंत्रों के लिए जरूरी हो गया
विचारी गयी बात निकाली गयी
बदला या भड़ास निकालने का अधिकार दे दिया जाये
अब हम हर पांच साल में भड़ास निकाल कर ख़ुश हैं
और फिर साढ़े चार साल तक शांत रहते हैं
और फिर चाचा को हटाकर भतीजा लाते है
और फिर ऐसे ही कभी चाचा कभी भतीजा
अब हमारी क्षणिक ख़ुशी का राज
यही निर्विरोध राजतंत्र-
जिसमें ज्यादा ख़ुशी और कम गुस्से से काम चलता है
न्याय, अधिकार, और समानता की अमर मांग
अब जहन में आने से रह गई है
मात्र सत्ता पलटने की बात
इन सब का उपाय लगने लगी है,
जहां बात बात पर फ़रमानी किताब
चुपी फैलाकर आंख मूंद लेती है
जब कभी जनता और राजा की मिलावट हो
इसी किताब को छलनी बनाकर
मिलावट नितार दी जाती है
हम साधारण से लोगों को
राजतंत्र या बहरूपिया राजतंत्र से फर्क नहीं पड़ता।
हम गुस्सा निकाल कर खुश हो लेंगे
हमारी ही स्वीकृति से
जो लोग हुकूमत के मद्द में
अन्नदाता या सर्वज्ञ बन गए
उनकी असलियत इतनी ही है कि
इनको गरीबों की गलियां नहीं मिलती;
ठीक तीन लोक के ज्ञाता की तरह-
जिसको अपने ही हाथों से काटा सर नहीं मिला
और परिवारवाद के लिए
मासूम माँ के बच्चे का सर कलम कर दिया
बस ध्यान इतना सा रखा जाता है कि
मौका-ए-वारदात पर माँ को पता न चले
बाद में माँ पर क्या बीतेगी ...
कौन जानने की जरूरत करता है।
क्योंकि अन्नदाता खुद को जनता स्वरूपी
व बेटे को जनता का ही एक अंश बताता है
अत: हमारी तो ख़ुशी का ठिकाना शेष नहीं
हमारे जहन में जो तंत्र है, हमने
उसी का नाम लोकतंत्र रख रखा है।
और लोहे पर लकीर जैसी कोई किताब
की आवश्यकता नहीं रही
हम पहले से ही नितारे गए लोग हैं।
- रोहित
वर्तमान राजतंत्र के नितारे गए लोग
जब हमने राजतंत्र से ऊब कर
विद्रोह शुरू किया
अधिकारों की मांग रखी
समानता की बात हुई-
तब अविरल विरोद्ध को रोकना
इन राजतंत्रों के लिए जरूरी हो गया
विचारी गयी बात निकाली गयी
बदला या भड़ास निकालने का अधिकार दे दिया जाये
अब हम हर पांच साल में भड़ास निकाल कर ख़ुश हैं
और फिर साढ़े चार साल तक शांत रहते हैं
और फिर चाचा को हटाकर भतीजा लाते है
और फिर ऐसे ही कभी चाचा कभी भतीजा
अब हमारी क्षणिक ख़ुशी का राज
यही निर्विरोध राजतंत्र-
जिसमें ज्यादा ख़ुशी और कम गुस्से से काम चलता है
न्याय, अधिकार, और समानता की अमर मांग
अब जहन में आने से रह गई है
मात्र सत्ता पलटने की बात
इन सब का उपाय लगने लगी है,
जहां बात बात पर फ़रमानी किताब
चुपी फैलाकर आंख मूंद लेती है
जब कभी जनता और राजा की मिलावट हो
इसी किताब को छलनी बनाकर
मिलावट नितार दी जाती है
हम साधारण से लोगों को
राजतंत्र या बहरूपिया राजतंत्र से फर्क नहीं पड़ता।
हम गुस्सा निकाल कर खुश हो लेंगे
हमारी ही स्वीकृति से
जो लोग हुकूमत के मद्द में
अन्नदाता या सर्वज्ञ बन गए
उनकी असलियत इतनी ही है कि
इनको गरीबों की गलियां नहीं मिलती;
ठीक तीन लोक के ज्ञाता की तरह-
जिसको अपने ही हाथों से काटा सर नहीं मिला
और परिवारवाद के लिए
मासूम माँ के बच्चे का सर कलम कर दिया
बस ध्यान इतना सा रखा जाता है कि
मौका-ए-वारदात पर माँ को पता न चले
बाद में माँ पर क्या बीतेगी ...
कौन जानने की जरूरत करता है।
क्योंकि अन्नदाता खुद को जनता स्वरूपी
व बेटे को जनता का ही एक अंश बताता है
अत: हमारी तो ख़ुशी का ठिकाना शेष नहीं
हमारे जहन में जो तंत्र है, हमने
उसी का नाम लोकतंत्र रख रखा है।
और लोहे पर लकीर जैसी कोई किताब
की आवश्यकता नहीं रही
हम पहले से ही नितारे गए लोग हैं।
- रोहित
from Google Image |
तंत्र है बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteसार्थक रचना .....लोकतंत्र के नाम पर अब तो राजतन्त्र ही चलन में है....राजनीति एक अलग लेवल पर है यहाँ लोगों को पारदर्शिता का चस्मा पहनाया जा रहा है ......सब मिल बांट कर खा रहे हैं बस आम जनता को नहीं खाने देना
ReplyDeleteलोकतंत्र है कहाँ आज भी,
ReplyDeleteसरकार चाहे जिसकी हो, परंतु सत्य यह है कि व्यवस्था नौकरशाहों के हाथ में रही हैं और है..
और ये अफसर
सदैव राजतंत्र के अंग रहे हैं..।
जब-तक हमें इन्हें हाकिम -हुजूर की जगह जनता का नौकर नहीं बोलना नहीं आएगा..।
जनतंत्र की जय बोलेंगे।
हमारे नेता तो नौकरशाही व्यवस्था के मुखौटा मात्र हैं।
सार्थक और विचारणीय पोस्ट।
बहुत शानदार प्रस्तुति।
ReplyDeleteसटीक और सार्थक।
सच कहा आपने । यह लोकतंत्र नही थोड़ा सा बदला हुआ राजतंत्र ही है।
ReplyDeleteजनता बेवश थी और बेवश ही है।
करारा प्रहार किया है आपने।
लेकिन मुझे नहीं लगता कि कुछ भी बदलने वाला है। बस, मन की भड़ास निकालते रहिए।
हम जो है इस तंत्र के बँटे हुये लोग
ReplyDeleteहमारी प्रबुद्धता को कट्टरवाद ने लील लिया है।
विचारधारा खेमों में बाँटकर
हम निष्पक्ष कैसे रह सकते हैं?
यह प्रश्न स्वयं से पूछने की आवश्यकता है।
बढ़िया रचना है।
समसामयिक।
कटु यथार्थवादी सशक्त लेखन
ReplyDeleteबहुत सुंदर और सार्थक रचना 👌👌
ReplyDeleteहाँ...ऐसा तो है हीं...राजतंत्र और लोकतंत्र की सीमायें अब पहचानी नहीं जाती...के कौन कहाँ से शुरू होती है और कौन कहाँ पे ख़त्म I बढ़िया रचना I
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सार्थक एवं सटीक सृजन।
ReplyDeleteहमारी ही स्वीकृति से
ReplyDeleteजो लोग हुकूमत के मद्द में
अन्नदाता या सर्वज्ञ बन गए
उनकी असलियत इतनी ही है कि
इनको गरीबों की गलियां नहीं मिलती;
और गरीब उनके गिरेबान को जकड़ नहीं सकते
दर्द में जीना मजबूरी है
सामयिक सार्थक लेखन
. बिल्कुल सही कहा राजतंत्र और लोकतंत्र सब बराबर ही हो गए हैं अब तो कुछ और ही तंत्र चल रहा है जिसकी लाठी उसकी भैंस तंत्र आज चाचा बैठे हैं तो कल यकीनन उनकी जगह पर भतीजा ही बैठेगा यह पंक्तियां बहुत बड़े सच को दर्शा रही है.... वर्तमान परिस्थितियों पर कविताएं पढ़ना अच्छा लगता है बहुत ही अच्छा लिखा आपने शुभकामनाएं
ReplyDeleteवाह! लोकतंत्र और राजतंत्र दोनों मिलकर लगभग वंशवाद की ओर अग्रसर होता नजर आ रहा है।चाचा या भतीजा।किसी भी तरह तो तंत्र किसी वंश को ही हासिल होता है। और तंत्र के प्रति उनका नजरिया भी वैसे ही होता है।गरीबों की ओर से उन्हें गालियाँ क्यो मिलेगी ।उनका मुँह तो छोटी-छोटी सुविधाएँ प्रदान कर बंद कर दिया जाता है।
ReplyDeleteबहुत सही और सटीक लिखा आपने 👍
ReplyDeleteसच, सार्थक सटीक लेखन
ReplyDeleteनए बिम्ब लेकर आम नागरिक के यथार्थ को खूबसूरती से शब्दांकित किया है। अब पहले से उत्पाद भी कहाँ हैं, सड़े गले वही प्रोडक्ट, बदलती हुई आकर्षक पैकिंग, न चाह कर भी खुश होने की आदत सी बन गई है।
ReplyDeleteहम पहले से ही नितारे गए लोग हैं- बहुत सही कथ्य। बधाई और आभार।
ReplyDeleteसार्थक और चिन्तन करने योग्य रचना, शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteप्रिय रोहित , पाश के पाठक और प्रशंसक हो और उन्हीं जैसी शैली और आक्रोश की झलक आपके लेखन में मिलती है | पाश कहते हैं सबसे खतरनाक है मुर्दे का शांति से मर जाना और हमारे सपनों का मर जाना | लोकतंत्र के नाम पर वंशवाद को पोषित करते जनता जनार्दन के रूप में हम वही कर रहे हैं | हमारी शक्तियाँ क्षीण हो चुकी हैं हम भ्रष्टाचार के अभ्यस्त हो चुके हैं | न्याय, समानता और अधिकार की अमर मांग चलती रही है और भविष्य में भी चलती रहेंगी | सत्ताएं आती हैं आती रहेंगी | | अच्छा -बुरा कैसा भी तरीका हो पक्ष को विपक्ष गिराने की कोशिश में लगा है | नैतिकता ताक पर टंगी है | समसामयिक रचना जो मौजूदा व्यवस्था की पोल खोलती नये प्रश्न उठाने में सक्षम है ये लेखनी यूँ चलती रहे | हार्दिक शुभकामनाएं | |
ReplyDeleteआपके आक्रोश की यहां सब ने प्रशंसा तो की है ! पर उसमें ज्यादातर खानापूर्तियां हैं ! हल कहां निकला किसी बात का ! वह तो वहीं की वहीं ही रही ! कुछ तो ऐसा हो जो ठोस हो ! जिसकी आवाज बहरे कानों तक पहुंचे ! अवाम को कोई ''ग्रांटेड'' ना ले सके !
ReplyDeleteगगन जी,
Deleteकविता ने अपना काम कर दिया,
इस मायने में कि खानापूर्ति करने वाले ये समझ पाएं कि जो ये लोकतंत्र है वो हकीकत में राजतंत्र का सुधारा गया रूप है।
नियत तब बदलती है जब हम इसे दिशा देना चाहें।
अगर इस रचना ने दो जनों का भी शीशा साफ किया है तो मेरा लिखना सफ़ल है।
बाकी व्यक्तिगत तौर पर हम लगे हुए हैं।
कोटि कोटि आभार।