इतिहास किसी का पुख़्ता नहीं है
चंद दिनांकों व नामों के अलावा
सारे आंकड़े बेबुनियाद है
अलग- अलग किताबों में
किसी एक का अलग-अलग नाम मिल सकता है
उसका वही-वही काम अलग-अलग दिनांकों को हो सकता है।
सम्भवतः ये किताबें आज लिखी गयी हैं
और 2619 साल पुरानी बातें करती हैं।
मैं मेरे गांव से पढ़ लिख कर आया हूँ
स्कूल में जब नाम लिखवाया जा रहा था
तो उस बुजुर्ग ने पांच साल पहले की-
कोई भी तारिक मांडणे को कह दिया होगा
हंसते हुए दोनों ने (अध्यापक और दादा)
मुझे एक नया जन्मदिन दिया।
यहाँ के 1960-70 के दशक के लोगों का जन्मदिन
पांच के पहाड़े पर या
1 जनवरी, 26 जनवरी, 15 अगस्त या
मई/जुलाई की कोई भी तारीख़ (11 या 21) ज्यादातर होता है।
वही बूढ़ी औरत जो हमें जाड़ों की रातों में
कहानियां सुनाया करती थी जो अपनी दादी से सीख कर आई थी-
बीच मे भूल जाने पर थोड़ी रुकती
और फिर सोच कर, कुछ जोड़ कर पूरा करती।
उसे कहानियों का ख़ाका तो याद था मगर हूबहू शब्द नहीं….
उसको जन्मस्थल याद था ना ही तो अपनी उम्र
दो साल पहले पूछा था
आज भी वही उतर- पिचहतर बरस।
आज जब मुझ से कोशिश हुई
कि मैं मेरा जन्म स्थल जानूं
मैंने मेरे जन्म के प्रमाणों से पूछा जो कुछ जीवित हैं और कुछ लिखित,
सब किसी गांव का जिक्र तो करते हैं
मगर उंगली के इशारे पर ठीक स्थल नहीं बता पाते
क्योंकि उस कच्ची ढाणी की जगह पक्के मकां उग चुके हैं
और उस सटीक जगह का कोई भी कच्चा या पका निशां बाकी न रखा गया।
स्कूल के रजिस्टर में जो जन्मदिन अंकित है
घर की औरतें अपनी तुलनात्मक गपशपों में इसका खंडन करती हैं
और जो जन्म स्थल है वह झूठा है-
उसी बुजुर्ग ने मूछों को तांव देते हुए
अपने ही घर का पता लिखवाया होगा
जो अब ना ही तो पहले जैसा है
और कई हिस्सों में बंट चूका है।
मगर यही मेरे होने के पुख़्ता सबूत भी हैं।
हो सकता है आज आपको सटीक जन्मदिन पता हो
पर क्या उस जगह को चिन्हित करके रख सकते हो
जहां माँ आपके लिए प्रसव पीड़ा में चीखी हो?
क्या आपको अपने सटीक जन्म स्थल की जानकारी है?
इतिहास किसी का पुख़्ता नहीं है
चंद दिनांकों व नामों के अलावा
सारे आंकड़े बेबुनियाद है।
-रोहित
चंद दिनांकों व नामों के अलावा
सारे आंकड़े बेबुनियाद है
अलग- अलग किताबों में
किसी एक का अलग-अलग नाम मिल सकता है
उसका वही-वही काम अलग-अलग दिनांकों को हो सकता है।
सम्भवतः ये किताबें आज लिखी गयी हैं
और 2619 साल पुरानी बातें करती हैं।
मैं मेरे गांव से पढ़ लिख कर आया हूँ
स्कूल में जब नाम लिखवाया जा रहा था
तो उस बुजुर्ग ने पांच साल पहले की-
कोई भी तारिक मांडणे को कह दिया होगा
हंसते हुए दोनों ने (अध्यापक और दादा)
मुझे एक नया जन्मदिन दिया।
यहाँ के 1960-70 के दशक के लोगों का जन्मदिन
पांच के पहाड़े पर या
1 जनवरी, 26 जनवरी, 15 अगस्त या
मई/जुलाई की कोई भी तारीख़ (11 या 21) ज्यादातर होता है।
वही बूढ़ी औरत जो हमें जाड़ों की रातों में
कहानियां सुनाया करती थी जो अपनी दादी से सीख कर आई थी-
बीच मे भूल जाने पर थोड़ी रुकती
और फिर सोच कर, कुछ जोड़ कर पूरा करती।
उसे कहानियों का ख़ाका तो याद था मगर हूबहू शब्द नहीं….
उसको जन्मस्थल याद था ना ही तो अपनी उम्र
दो साल पहले पूछा था
आज भी वही उतर- पिचहतर बरस।
आज जब मुझ से कोशिश हुई
कि मैं मेरा जन्म स्थल जानूं
मैंने मेरे जन्म के प्रमाणों से पूछा जो कुछ जीवित हैं और कुछ लिखित,
सब किसी गांव का जिक्र तो करते हैं
मगर उंगली के इशारे पर ठीक स्थल नहीं बता पाते
क्योंकि उस कच्ची ढाणी की जगह पक्के मकां उग चुके हैं
और उस सटीक जगह का कोई भी कच्चा या पका निशां बाकी न रखा गया।
स्कूल के रजिस्टर में जो जन्मदिन अंकित है
घर की औरतें अपनी तुलनात्मक गपशपों में इसका खंडन करती हैं
और जो जन्म स्थल है वह झूठा है-
उसी बुजुर्ग ने मूछों को तांव देते हुए
अपने ही घर का पता लिखवाया होगा
जो अब ना ही तो पहले जैसा है
और कई हिस्सों में बंट चूका है।
मगर यही मेरे होने के पुख़्ता सबूत भी हैं।
हो सकता है आज आपको सटीक जन्मदिन पता हो
पर क्या उस जगह को चिन्हित करके रख सकते हो
जहां माँ आपके लिए प्रसव पीड़ा में चीखी हो?
क्या आपको अपने सटीक जन्म स्थल की जानकारी है?
इतिहास किसी का पुख़्ता नहीं है
चंद दिनांकों व नामों के अलावा
सारे आंकड़े बेबुनियाद है।
-रोहित
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (04-12-2019) को "आप अच्छा-बुरा कर्म तो जान लो" (चर्चा अंक-3539) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 03 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहम शहरी मध्यवर्गीय, बिना पैदाइश की तारीख के, ऐसे बे-नाम और बे-पता बचपन से नावाकिफ़ हैं लेकिन बड़े होकर हम भी या तो गुमनाम हो गए हैं या फिर हाशिये पर चले गए हैं. वैसे भी भैंस तो वही हांकेगा, जिसके पास लाठी होगी. इसमें किसका बचपन कैसा था, यह सवाल बेमानी हो जाएगा.
ReplyDeleteवाह! इतिहास वाकई पुख्ता नहीं हैं
ReplyDeleteबहुत अच्छी सीख देती रचना ,सादर नमन
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत ही अच्छे विषय पर आपने अपने विचारों को कविता का रूप दिया सत्य है इतिहास किसी का पुख्ता नहीं है जो बापदादा कह गए हम उसे ही इतिहास मान लेते हैं..!
ReplyDeleteजन्म का इतिहास होना कितना महत्वपूर्ण है?
ReplyDeleteशायद जन्म के बाद एक ऐसा इतिहास बनते जाते हैं जिसका कोई आकंडा नहीं सिवाय धूमिल होती स्मृतियों के।
समय की चाल में हमारे साथ ही यह इतिहास दफ़्न हो जाता है। शायद का कर्म का इतिहास होना आवश्यक है जो साल़ों या दशकों बाद भी दंत कथाओं के रुप में आने वाली पीढ़ियों की प्रेरणा का स्त्रोत बन सके।
चिंतनशील रचना।
रोचकता पूर्ण
ReplyDeleteएक मुद्दा ये भी है। बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteसही कहा आपने इतिहास तो लिखने वाले की मनोवृति और सामायिक प्रचलित जानकारियों में अपनी प्रमाणिकता को सदा ही विस्मृत रखता है, पर हम ये सब समझ गये हैं तो अपने बच्चों के लिए उनसे संबंधित सभी जानकारियां कम स कम उन तक तो प्रमाणिक तौर पर पहुंचा सकते हैं,
ReplyDeleteआपका लेख एक सशक्त चिंतन दे रहा है कि स्वयं का इतिहास तक प्रमाणित नहीं है तो फिर कैसे इतिहास को प्रमाणिक माने।
बहुत बहुत साधुवाद।
बहुत रचना एक तरह से संस्मरण ही कहूँगी बहुत उम्दा
ReplyDeletehttps://bulletinofblog.blogspot.com/2019/12/2019_7.html
ReplyDeleteकहीं न कहीं मेमोरी में आज भी होंगी उन बूढी माओं के मन में ... स्पष्ट खाका बना देंगी वो इतिहास का जो आज शायद नहीं है वहां ... पर आज को आने वाले कल में क्या कोई याद रख सकेगा ... जनम दिन की तारीख, समय के अलावा जिंदगी को कौन याद रखेगा ...
ReplyDeleteप्रशंसनीय
ReplyDeleteबहुर सटीक प्रिय रोहित जी ,----- इतिहास किसी का पुख्ता नहीं होता - इस बात के लिए आपके तर्क आपकी मननशीलता का दर्पण है | नाजाने क्यों फिर इंसान अपने इतिहास को कायम रखने की दुहाई देकर, अपनी आने वाली पीढ़ियों से यही आशा रखता है कि वे विरासत के रूप में उनका इतिहास सहेजें |जबकि आंख ओझल पहाड़ फाड़ ओझल |पल सरका तो इतिहास संदिग्ध हो जाता है | वो पल अतीत में खो जाते है जिनका आकलन सही सही कोई कलम ना कर पायी |इस चिन्तनशीलता की सराहना करती हूँ | सस्नेह --
ReplyDeleteजज्बातों से लबालब है सुंदर रचना को कविता का रूप दिया
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