'उम्मीद बाकी है हम में ही' |
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एक वक्त था जब
महकते थे फूल बहुत
ऋतुएं आबाद होती थी
लय की बात होती थी
संगीत झरते थे अल्फ़ाज़ डूबते थे
हीर रांझे सा इश्क़ पिरोये
मैं नाचती थी कि मेरी एड़ियों की थाप से
कागज़ फट जाया करता था
ऐसी बिछड़न थी समाई कि
गीले पन्ने हाथ की छुअन से चिपकते थे
स्याही फैलने तक मेरे वजूद का अहसास था
एक वक़्त था जब-
पगडंडी, रास्ता, खेत, बगीचे, गांव-शहर
सब का सौंदर्य गले तक भरा रहता था
मेरे अंदर के ज्ञान, वाणी, धर्म या दर्शन ने
आदमी को आदमी बनने की सहूलियत दी है-
मैं मगर अब भी बीसियों हज़ार साल बाद भी
मेरे जन्मदाता के
उन्हीं समांतर विचारों से बैचेन हूँ
दोहराव का मतलब है
जन्म और जन्म के बाद फिर जन्म
ये क्रिया न मरण है ना ही जिंदगी
मात्र अल्फ़ाज़ के हेर फेर से बेदम हूँ
लय या संगीत जैसी मिलावट से ऊब चुकी हूँ।
हे मेरे जन्मदाता!
तुम अगर नींव ही बनाते रहोगे
तो ये कोरी बर्बादी है और मेरे क़त्ल में सहयोग
मैं नहीं कहती की मेरी नींव में लगे
हर एक विचार, अल्फाज, लय या दर्शन
अब काम के नहीं रहे
बल्कि इनको काम में लेने के बाद जो बचता है
उस मकां की ईंट धरी न गयी।
नींव में जो परिश्रम लगा है
वो आज एक सुविधा है-
कि कुछ बातें मान ली जा सकती है
कि वो पहले से सिद्ध हैं और प्रमाणिक है।
उनको कुरेदना छोड़, नया बुनना सीखो
मुझ में नए प्राण फूंको
मुझे आधुनिकता की गंद चाहिए
मुझे वास्तविकता से अवगत होना है
मैं कमजोर नहीं कि जान के रो दूंगी
मुझे पत्थरबाज़ी में उतारो
मैंने खूब मय पी है
मुझे कुरूपता से प्यार है
अब मुझे वो आंगन चाहिए
जहां से सुंदरता की अर्थी विदा की जा सके
और मातम को चूमा जा सके
अपने कटे होठों वाले मुँह से
कौमी एकता को प्यार का बोसा दूँ
ताकि इसमें अपने दांत गढ़ा सकूं।
मुझे इतिहास नहीं आज का कांच बनाओ
मुझसे ताजा दर्द को जोड़ो
मेरी बुनियाद को जाल का तगमा ना दें
कविवर! खुद को फंसी चिड़ियाँ न माने।
BY
ROHITAS GHORELA
लिंक- कविता १
सुप्रभात जी। बहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteहोलीकोत्सव के साथ
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की भी बधाई हो।
दो बार पढ़ने के बाद भी यह सोचती रह गई कि कौन सी दो पंक्तियां चुनूं जो बतौर उदाहरण लिखूं... आरम्भ से अन्त तक
ReplyDeleteहर शब्द एक अनूठे यथार्थ से बंधा अनुभव किया । अद्भुत सृजन.
आत्मबोध कराती लेखनी। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय रोहितास जी।
ReplyDeleteधन्यवाद सिन्हा साब
Deleteबहुत सुंदर रचना, रोहितास भाई।
ReplyDeleteथेंक्स बहना
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-03-2020) को महके है मन में फुहार! (चर्चा अंक 3635) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
होलीकोत्सव कीहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
नित नए बनते कृष्ण विवर राह ताकते हैं ....कि सौंदर्य ही उनका भक्ष्य है । हाँ ! मुझे नहीं आती संगबाजी ...इसीलिए टापू बन रहा हूँ मैं ...सीमाएँ सिकुड़ती जा रही हैं मेरी ।
ReplyDeleteमैंने खूब मय पी है
ReplyDeleteमुझे कुरूपता से प्यार है
अब मुझे वो आंगन चाहिए
जहां से सुंदरता की अर्थी विदा की जा सके
और मातम को चूमा जा सके
बहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति.
आधुनिक युग की कुरूपताओं और विद्रूपताओं का सम्यक दर्शन कराती है आपकी यह य़ह रचना.
मैं कमजोर नहीं कि जान के रो दूंगी
ReplyDeleteमुझे पत्थरबाज़ी में उतारो
मैंने खूब मय पी है
मुझे कुरूपता से प्यार है
अब मुझे वो आंगन चाहिए
जहां से सुंदरता की अर्थी विदा की जा सके
आपके लेखन में सच्चाई है.. बेबाक़ सुंदर चित्रण
अद्भुत !!
ReplyDeleteआत्म मंथन करती रचना! कैसे विसंगतियों में जीना सिखना हो गूढ़ अर्थ देती गजब अभिव्यक्ति।
मेरी बुनियाद को जाल का तगमा ना दें
ReplyDeleteकविवर! खुद को फंसी चिड़ियाँ न माने।
सुन्दर आत्माभिव्यक्ति. Happy Holi to you and your family.
जब सब कुछ बदल रहा है तो कविता क्यों न बदले, बदलते हालात पर तप्सरा करती सुंदर कविता !
ReplyDeleteआज भी खिलखिलाती है उसी रंग रुप और गंध में लिपटी मौन प्रकृति उसे महसूस करते मन और भावना शब्दों की पुरातन कारीगरी से धीरै-धीरे उबरने का प्रयास कर रहे हैक्योंकि परिवर्तन शनैः शनै संतुलित होती है वरना वेग से हुआ परिवर्तन सब कुछ नष्ट कर देगा।
ReplyDeleteऐसा तो नहीं आधुनिकता के खोल में बसने लगे हों सिर्फ़ बारुद की गंध, बची हो रक्तपिपासु मानवता के बदबूदार शव ही बिखरे हों गलियों और सड़कों पर....हे कवि,कविताओं को नये कलेवर में सजाने के पहले सकारात्मकता का चश्मा अवश्य धारण कर लो ताकि समाज भयभीत न हो।
बहुत सुंदर भावपूर्ण सृजन है। एक सार्थक संदेश प्रेषित करती सराहनीय अभिव्यक्ति।
स्वागत है आपका
Deleteजान के खुशी हुई कि कोई तो है जो यथार्थ को जानता है।
एक ही बात तो कर रहे हैं हम दोनों
आप कह रही है कि "आज भी *वही* रंग रूप..."
मेरी कविता कह रही है कि "मैं बीसियों हज़ार साल बाद भी वही समांतर विचार से बेचैन..."
अब शनै:शनै...मगर कितना??
हमारे पूर्वजों ने कविता की नींव में झाड़,फूंस पतझड़,सूरज का उगना छिपना,प्रभात उत्साह,उमंग, रोना धोना, इश्क से सम्बंधित हर प्रकार के विचार भर भर के लगाए हैं। और हम इन्हीं विचारों को सैम का सैम या थोड़ा बहुत लीपापोती करके चिपकाते आ रहे हैं और फिर मौलिकता का टैग लगा देते हैं।
रही आधुनिकता के कलेवर की बात तो फर्ज करो कि आप एक आईने के सामने बैठे हो और आप एक 20 साल की युवती हैं और आपने उस आईने पर सुंदर सी तात्कालिक फ़ोटो लगा के रखी है। आप लगातार 60 साल तक बैठी रहती हैं और फ़ोटो की वजह से आईना आपको अभी भी 20 साल वाली युवती की तरह ही दिखाता है... वही गालों की लाली, वही काले बाल और वही यौवन।
आईने का यह धोका आपको अच्छा लगता है इसीलिए आप केवल इसी आईने के सामने रहना चाहते हो।
क्योंकि हकीकत से रूबरू होना दुखदायी है।
इस आईने को जो हकीकत से रूबरू ना हो सका आज की कविता मान सकते हो।
कविता सृजन के वक्त सकारात्मक होना कितना जरूरी है अभी लम्बी बहस का विषय है लेकिन जब सकारात्मकता का चश्मा ज्यादा क्लियर हो तो वो नकारात्मकता के बिल्कुल नजदीक जाकर बैठता है। तब दोनों में अंदर करना भी खीज पैदा कर देता है।
बाकी आप साहित्य के क्षेत्र में मंझे हुए साहित्यकार हो। आप बेहतर जानते हो।
अब मुझे वो आंगन चाहिए
ReplyDeleteजहां से सुंदरता की अर्थी विदा की जा सके
और मातम को चूमा जा सके
अपने कटे होठों वाले मुँह से
कौमी एकता को प्यार का बोसा दूँ
ताकि इसमें अपने दांत गढ़ा सकूं।
मुझे इतिहास नहीं आज का कांच बनाओ....वाह चमत्कारिक प्रभाव पैदा करती पंक्तियाँ। बधाई और आभार।
मन को नम करती भावपूर्ण और प्रभावी रचना
ReplyDeleteयही सच है।
ReplyDeleteप्रिय रोहित , बदलते समय में नारी मन की आकांक्षाएं भी नव आकाश की लालसा में परिवार और समाज की ओर देखने लगीं है | सदियों से दबी कुचली भावनाएं और सपने नयी साँस लेने को आतुर हैं |आधुनिकता के नाम पे जो मिल रहा है वह पुरातन विचारधाराओं से अब भी आच्छादित है |उसे जो चाहिए वह वह मुखर हो कहना जान गयी है | नये संदर्भ , नए तर्क , अभिव्यक्ति का नया ढंग उसकी विशेषता हैं | अनकहे भावों को बखूबी शब्दांकित किया है आपने| | हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं
ReplyDeleteआधुनिकता की गंद --- गंध
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता।
ReplyDeleteराजीव उपाध्याय
बेहद खूबसूरत ताज़ातरीन ख़्याल हैं,बार बार पढ़ने पर भी कुछ नया ही लगता हैं।इंक़लाबी लहज़ा और अदमी बंधो से परे लब्ज़ उतार डाले हैं आपने।अग़र इसे सुरो में बांध के चुपचाप बंद पलको से सुना जाता तो मज़ा ही आज जाता।आप को बहुत बहुत वाह वाही
ReplyDeleteमुझे कुरूपता से प्यार है
अब मुझे वो आंगन चाहिए
जहां से सुंदरता की अर्थी विदा की जा सके
क्या बात हैं।