शिक्षक नही गुरुदेवों का ज़माना था,
दीपावली के बाद शर्दियों के दिन थे
शाम को गुरु जी का स्कूल में बुलाना था,
शाम का भोजन करने के बाद
लौट के स्कूल को आना था
वह पहली शाम थी स्कूल की
खटिया बिस्तर साथ लाना था,
तब बिजली नही थी गाँव में
एक बड़ा सा लंप जलना था
रोज़ गाँव की बालू रेत से
लंप का शीसा साफ करना था,
तिन ओर हम बैठे थे और एक ओर थे गुरु जी
बिच में एक बड़ा सा लंप जलाना था,
हम पढ़ते थे बड़ी राग से
वो गुरु जी का नोवेल पढना था
देर रात तक पढ़ते थे
फिर वही पर सोना था,
सुबह गुरु जी ने आवाज लगाई
सबको एक साथ जगना था,
घर भोजन करने के बाद
फिर लौट के स्कूल आना था,
स्कूल में किताबी ज्ञान ही नहीं
व्यावहारिक ज्ञान भी मिलता था,
तिन बजे से गोधूली तक
समय खेल-कूद का होता था,
आज न रही वो पढ़ाई न रहे वो गुरु जी
कभी स्कूल भी गुरुकुल होता था,
आज ट्युशन व पैसे पर मरता शिक्षक हैं 'रोहित'
कभी सच्चा ज्ञान देना उनका मक्सद होता था |
(१९७२ हमारे गाँव धोलपालिया की शिक्षा पद्धति
और एक चोथी कक्षा का विवरण )
और एक चोथी कक्षा का विवरण )
Ravikar ji aapka bahut bahut aabhar....
ReplyDeleteआप बहुत अच्छा लिखते हो!
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