Thursday, 1 November 2012

घर कहीं गुम हो गया

देखो घर कहीं गुम होने जा रहा हैं
बेटा, बाप से न्यारा होने जा रहा हैं

क्या मंज़रे-पुरहौल है इस पिता के लिए
फिर भी पंडित शुभ और मंगलकामना के  मंत्र
पढ़ रहा है एक नये घर में,उसके बेटे के लिए।

ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक कितना रुला रही थी पिता को
गमजदा दिल लिए हुए पड़ा है
 किसी वीरान कोने में
याद कर रहा हैं वो पल
वो दशहरा ,वो दीपावली
वो रंगा-रंग होली
वो बेटे की बच्चपन वाली ठिठोली,
सब चला गया, सब आँखों के सामने तैर रहा हैं।

एक  हरा - भरा पेड़  बेशाख-शजर  हो गया
  जिस प'खिलने थे फूल बेबर्ग-शजर हो गया।  

Image courtesy -photobucket.com

अँधेरे कोने में बैठा दिले-तन्हा, 
दम-ब-खुद सा ,पिता अब 
इस दर्द को अपने अन्दर समा रहा है
दी हुई क़ूल्फ़तें अब कबूल कर रहा है

दर्दे-ख्वाब ये नजर आ रहा है, जिन्दगी
जो बची है बिना सहारे के काट रहा हैं
देखो घर कहीं गुम होने जा रहा हैं
बेटा, बाप से न्यारा होने जा रहा हैं।


By
~रोहित~



(इस कविता का शीर्षक  मख्मूर सईदी जी की एक किताब  "घर कहीं गुम हो गया" से लिया गया हैं।)


 मंज़रे-पुरहौल=डरावना दृश्य.   ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक=सम्बन्ध विच्छेद होने की कसक.    गमजदा =दुःख से भरा.  बेशाख-शजर=बिना टहनी का पेड़.   बेबर्ग-शजर=बिना पत्तों का पेड़.   दम-ब-खुद सा=मौन.   क़ूल्फ़तें=कष्ट. 

38 comments:

  1. बहुत उम्दा!
    आजकल के हालात की सार्थक प्रस्तुति!

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  2. भाई साहब आज के हालात को बयाँ करती एक बेहद सुन्दर सार्थक रचना उम्दा प्रस्तुति बधाई स्वीकारें.

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  3. आज के हालात की सार्थक सटीक प्रस्तुति,,,रोहितास जी, बधाई

    RECENT POST LINK...: खता,,,

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  4. "घर कहीं गुम हो गया...और होने जा रहा है"
    बहुत खूब...उम्दा भाव |

    सादर
    -मन्टू

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  5. बेटा बनता है बाप
    सामने बाप के
    आता है होश,जब
    समय दुहराता है खुद को!


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  6. कटु सत्य को बयाँ करती संवेदनशील अभि्व्यक्ति

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  7. उम्दा रचना आज के युवा पीढ़ी के गाल पर तमाचा मारने वाली रचना है!

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  8. Thursday, 1 November 2012

    घर कहीं गुम हो गया
    देखो घर कहीं गुम होने जा रहा है
    बेटा, बाप से न्यारा होने जा रहा है

    क्या मंज़रे-पुरहौल है इस पिता के लिए
    फिर भी पंडित शुभ और मंगलकामना के मंत्र
    पढ़ रहा है एक नये घर में,उसके बेटे के लिए।

    ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक कितना रुला रही थी पिता को
    गमजदा दिल लिए हुए पड़ा है
    किसी वीरान कोने में
    याद कर रहा है वो पल
    वो दशहरा ,वो दीपावली
    वो रंगा-रंग होली
    वो बेटे की बच्चपन वाली ठिठोली,
    सब चला गया, सब आँखों के सामने तैर रहा है।

    एक हरा - भरा पेड़ बेशाख-शजर हो गया
    जिस प'खिलने थे फूल बेबर्ग-शजर हो गया।


    Image courtesy -photobucket.com

    अँधेरे कोने में बैठा दिले-तन्हा,
    दम-ब-खुद सा ,पिता अब
    इस दर्द को अपने अन्दर समा रहा है
    दी हुई क़ूल्फ़तें अब कबूल कर रहा है

    दर्दे-ख्वाब ये नजर आ रहा है, जिन्दगी
    जो बची है बिना सहारे के काट रहा है
    देखो घर कहीं गुम होने जा रहा है
    बेटा, बाप से न्यारा होने जा रहा है।


    By
    ~रोहित~
    रोहित भाई उर्दू अलफ़ाज़ के मायने देकर आपने रचना का सम्प्रेषण निश्चय ही बढ़ाया है .बेहद के दर्दे एहसास से पूरित रचना .बधाई .चंद बिंदियाँ (अनुस्वार /अनुनासिक /ध्वनी प्रयोग )हमने हटाएँ हैं गौर करें मूल रचना से फर्क .



    (इस कविता का शीर्षक मख्मूर सईदी जी की एक किताब "घर कहीं गुम हो गया" से लिया गया हैं।)

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  9. This comment has been removed by a blog administrator.

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  10. दोस्त हम आपको न सिर्फ फोलो कर रहें हैं बराबर टिपण्णी भी कर रहें हैं आपकी पोस्ट पर .स्पैम से निकालें .

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    Replies
    1. मुझे आगाह करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद वीरेंद्र जी, आप मेरे ब्लॉग पर आये इसके लिए कोटि कोटि आभार !! आपकी उपस्थिति मेरे लिए बहुत बड़े मायने रखती है Sir ji :)

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  11. आज के परिवेश को मुखरित करती आपकी रचना निश्चित रूप से प्रासंगिक है ....!

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  12. बहुत मार्मिक दिल को छू गई ये पंक्तियाँ बधाई आपको इस सुन्दर रचना के लिए

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  13. सच्चाई को बयां करती बढ़िया रचना ।
    मेरे ब्लॉग में आने के लिए आभार । आपका भी ब्लॉग बहुत बढ़िया है और सारी रचनाये उम्दा हैं ।

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  14. प्यारे प्यारे पूत पे, पिता छिड़कता जान ।

    अपने ख़्वाबों को करे, उसपर कुल कुर्बान ।

    उसपर कुल कुर्बान, मनाये देव - देवियाँ ।

    करे सकल उत्थान, फूलता देख खूबियाँ ।

    पुत्र बसा परदेश, वहीँ से शान बघारे ।

    पिता हुवे बीमार, और भगवन को प्यारे ।।

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  15. घर घ यही हालात हैं आज ..

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  16. आपका टिप्पणी करने का ये अंदाज बहुत भाता है रविकर जी ... आप मानो या ना मानो आपकी टिप्पणी का इंतजार मैं कई दिनों से कर रहा था ... लिंक-लिक्खाड़ पर मेरे ब्लॉग का लिंक आना मेरे लिए सोने पर सुहागा है।

    आपका कोटि कोटि धन्यवाद रविकर जी।

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  17. बहुत ही मार्मिक एवं सारगर्भित अभिव्यक्ति। मेरी कामना है कि आप अहर्निश सृजनरत रहें। धन्यवाद।

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  18. मित्र आपको यहाँ http://mostfamous-bloggers.blogspot.in/ शामिल किया गया है पधारें.

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  19. बिल्‍कुल सच कहा है आपने ...
    सार्थकता लिये सशक्‍त अभिव्‍यक्ति

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  20. बहुत सुन्दर...मर्मस्पर्शी रचना.

    आभार
    अनु

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  21. बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति..

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  22. रोहितास जी, आज के समाज में वृद्ध मातापिता की विडम्बना को दर्शाती रचना .... बहुत प्रभावशाली प्रस्तुति ....शब्द चयन लाजवाब!

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  23. उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...

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  24. बहुत सुंदर रचना, क्या कहने
    शुभकामनाएं

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  25. वो बेटे की बच्चपन वाली ठिठोली,
    सब चला गया, सब आँखों के सामने तैर रहा हैं।......bahut badhiya ....dil ko chhune wali pankti...

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  26. कैसी विडम्बना है... :( सच में ! कभी कभी ऐसी हक़ीक़तें बहुत तक़लीफ़देह होतीं हैं....

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  27. सत्य को बयाँ करती संवेदनशील.... उम्दा रचना

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  28. उर्दू और हिंदी का एक साथ संयोजन , :)

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  29. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (06-02-2020) को 'बेटियां पथरीले रास्तों की दुर्वा "(चर्चा अंक - 3603) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है 

    रेणु बाला 

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  30. छोटे में इतना कुछ कहती हृदय स्पर्शी रचना।
    बहुत सुंदर।

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  31. अँधेरे कोने में बैठा दिले-तन्हा,
    दम-ब-खुद सा ,पिता अब
    इस दर्द को अपने अन्दर समा रहा है
    दी हुई क़ूल्फ़तें अब कबूल कर रहा है
    बहुत ही हृदयस्पर्शी बहुत ही लाजवाब
    वाह!!!

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  32. This comment has been removed by the author.

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  33. घर के बंटवारे और पिता के दर्द की मार्मिक अभिव्यक्ति प्रिय रोहित! ये रचना अविस्मरनीय है मेरे लिए

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