Wednesday 21 September 2011

अनोखी ऋतूवें


बसंत के पीले कपड़ों को
जांबाज़ पहन के निकले थे 
मर मिटने के उस रंग को
इक शाम पहन के निकले थे,
भर जोश कदम से बढ चले
अपने वतन के वास्ते 
पर बस राहों में मरने की, चुनोती अभी बाकि है,

सावन के आने तक
जयपुर  निशाना बन गया ,
फिर दिल की दिल्ली दहल गयी 
अब चलती मुंबई भी ठहर गयी और खूब रोई
आँखों में आँसूं अभी बाकि है,

अब बसंत ऋतू की मौज है
और कलियों में रंग भरे हुवे
बस देश की आँखों के फूलों में
वो जोश भरना बाकि है

जब फाल्गुन आया देश में
था बस कुर्बानी के लिए,
और बसंत के बसंती चोलों पर
वो लहू की बुँदे अभी आकी है,

अब माताएं आकर पुछ रही
बेटों का मेरे क्या हुवा,
बारूद के छलनी कपड़ों में
वो खुसबू अभी बाकि है,

की बर्बादी बता सकती नही कवियों की कल्पनाये भी ,
पर बस लिखने की एक छोटी सी कोशिश अभी बाकि है |

(ये कविता मुझे अमित भोजक ने दी थी और इसको रचने वाले उनके छोटे भाई हैं )

1 comment:

  1. किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।

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