Saturday, 8 October 2011

मुसाफ़िर



कभी तु मंजिल थी मेरी
अब मंजिल कोई नई ढूंढने चले हैं,

तेरी हर अदा ने किया था कायल
अब इसी अदा से नाकारा चले हैं,

गम के मारे जो मुस्कुराये थे
आज उन्ही आँखों में आंसू चले हैं

तेरे प्यार में नशा था मुझे होश न था
की ठोकर खाकर होश पाने चले हैं

नशे की लत कोई छोड़ पाया है क्या
शराबी न था की अब शराबी बनने चले हैं,

प्यार किया था क्यूँ
अब अपने आप को कोसने चले हैं

सोचता हूँ तुझे भूलना अच्छा हैं
अब तो कोई नई शुरुवात करने चले हैं,

एक तरफ़ा प्यार से नफ़रत हो गयी
अब प्यार से प्यार करने चले हैं,

जिन्दगी के खेल भी अजीबों गरीब है
हम कभी सफ़र तो कभी हमसफ़र ढुंढने चले हैं,

राही बनकर रह जाती हैं दुनियां 'रोहित'
मुसाफिर वही जो सच्ची मंजिल ढुंढने चले हैं |

Thursday, 6 October 2011

अपनी शिक्षा पद्धति




बड़ी मुश्किलों से एक बच्चा पढ़ना होता था
सब बड़े छोटों को खेतो में काम करना होता था,

पढ़ने वालों में मेरा नाम शामिल था
सब भाई बहिनों में मैं पढ़ने वाला होता था,

न पोशाक थी न पैसा था
वही था जो कुछ खेतो में होता था,

न किताब थी न पेन था हाथ से बनाई कलम थी
फिर तख्ती पर सुलेख लिखना होता था,

दवात क्या थी, चारआन्ने पुड़िया थी
हाथों से घोल बनाना होता था,

पढने वाले की यही निशानी थी
कहीं दवात हाथ पर लगी कहीं कुर्ता कला होता था,

तख्ती साफ करने को न सफेदा था न रबड़ था
बस मुल्तानी मिट्टी संग पानी होता था,

हर परीक्षा में मैं बस उतीर्ण हुआ
न अंकों का कोई खेल था न प्रतिशत मालूम  होता था,

आज दूसरी कक्षा का भी बच्चा कुली बना है  
जेसे बरसों पहले बंदुवा श्रमिक होता था,

बच्चों पर शारीरिक व मानसिक बोझ बडा है
किताबों का व अंकों का; ऐसा तो न होता था,

महंगाई की जंजीरों में शिक्षा बनी व्यवसाय है 
पहले शिक्षा पर इतना खर्चा न होता था,

दुर्लब शिक्षा से कामयाबी कोसों दूर हुई 
सरल व सहज शिक्षा से हर एक कामयाब होता था

आज कहाँ है वो तख्ती दवात और कलम 'रोहित'
कभी पढ़ना व पढ़ाना इन्ही से तो होता था |

(धोलपालिया गाँव की १९७२ से पहले की शिक्षा पद्धति 
जेसा की मेरे पिताजी ने मुझे बताया )

Sunday, 2 October 2011

शिक्षा- शिक्षक के बारे में

आज की तरह नही थे शिक्षक,
शिक्षक नही गुरुदेवों का ज़माना था,

दीपावली के बाद शर्दियों के दिन थे
शाम को गुरु जी का स्कूल में बुलाना था,

शाम का भोजन करने के बाद
लौट के स्कूल को आना था

वह पहली शाम थी स्कूल की
खटिया बिस्तर साथ लाना था,

तब बिजली नही थी गाँव में
एक बड़ा सा लंप जलना था

रोज़ गाँव की बालू रेत से
लंप का शीसा साफ करना था,

तिन ओर हम बैठे थे और एक ओर थे गुरु जी
बिच में एक बड़ा सा लंप जलाना था,

हम पढ़ते थे बड़ी राग से
वो गुरु जी का नोवेल पढना था

देर रात तक पढ़ते थे
फिर वही पर सोना था,

सुबह गुरु जी ने आवाज लगाई
सबको एक साथ जगना था,

घर भोजन करने के बाद
फिर लौट के स्कूल आना था,

स्कूल में किताबी ज्ञान ही नहीं
व्यावहारिक ज्ञान भी मिलता था,

तिन बजे से गोधूली तक
समय खेल-कूद का होता था,

आज न रही वो पढ़ाई न रहे वो गुरु जी
कभी स्कूल भी गुरुकुल होता था,

आज ट्युशन व पैसे पर मरता शिक्षक हैं 'रोहित'
कभी सच्चा ज्ञान देना उनका मक्सद होता था |

(१९७२ हमारे गाँव धोलपालिया की शिक्षा पद्धति 
और एक चोथी कक्षा का विवरण )