Tuesday, 9 March 2021

अर्थों के अनर्थों में

हमें भुलवा दिया जाता है
अर्थों के अनर्थों में क्या छुपा है
एक दिन की महिमा के अर्थ से 
364 दिनों के अनर्थों का क्या हुआ?
या सुना दिया जाता है अनर्थों के अर्थ को निथार के
अनर्थों के लाभ को कोई जान न ले 
इसलिए अर्थों की सीमा के बाहर की दुनियां नष्ट कर दी गई
ये घाव न नासूर बनता है न भरता है।
विडंबना के घाव को कुरेदते वक्त
खून नहीं पानी निकलता है
क्योंकि इस चूल्हे में जलने वाली आग,
राख तक के निशाँ गहरे दबा दिए गए।

प्रकृति में समाज निर्माता आदमी ने
समाज में प्रकृति की कोई व्यस्था न की
इसने खुद के सिवाय सभी को मृत चमड़ी माना
वो भूल गया ईडन गार्डन से साथ में निकली औरत को।
वहां से आज तक के सफ़र में
कौनसी मानसिकता का संकीर्ण मोड़ आया
जो आपको इतना आगे पीछे होना पड़ा,
किस बात का भय था और किसको था
जो बराबर की हस्ती तेरी मुठ्ठी में आ गयी।

वो सब कुछ बन गयी तेरे लिए-
तेरे लिए क्यों बनी वो?
सागर भी, झील भी
बहती नदी भी, मोरनी भी
फूल भी, सावन की सुहावनी बूंद भी
मगर औरत औरत न बन पाई
वो पर्दे में क्यों आ गयी
क्यों जिस्म छुपाना केवल इसे ही जरूरी हो गया
हमें भुलवा दिया जाता है
अर्थों के अनर्थों में क्या छुपा है।
  By- ROHIT

Thursday, 4 March 2021

गुजरे वक़्त में से...

हम कितनी तेज़ी से गुजरे 
उस गुजरे वक़्त में से
बगैर मुलाकात किये इज़हार तक पहुंच गए
नतीजन विफलता तक पहुंच गए
कितनी चीजें हाथ में से निकल गयी
तेरा साया तक छूने से जो खुशियां थी; फिसल गई,
बालों की चांदी तक निकल गयी
हमारे ख़र्च होते हर एक लम्हा ख़्वाब बने
एक सिगरेट उंगलियों में फंसी रह गयी।
जिसे उंगलियों में रखनी चाही वो क़लम
और कश्मकश बयाँ  न कर सकने वाले अल्फ़ाज़ से भरा मैं
बस निब है जो टूटती रहती है
क़लम है जो झगड़ती रहती है।

आसमाँ की जगह सागर देखा
सागर की जगह आसमाँ देखा
मैंने तैर कर चांद पर पहुंचना चाहा
और तड़फ ये कि तारों पर ही ठहर गए
तमाम उम्र हक़ीक़त ने परेशान न किया
ख़्वाबों ने लूट लिया
ख़्वाब जो तेरा था ज़िंदगी बन गया
ज़िंदगी जो मेरी थी  ख़्वाब बन गया।
हम बस उसी तरह से गुजर जाएंगे
एक ही तो रस्ता है वहीं से निकल जाएंगे।
                -ROHIT