कितने दिन हो गये अफ़लातून से भरे हुए
यानी कब तक जियें खुदा को जुदा किये हुए
उलझी जुल्फें हैं और जिन्दगी भी; एक तस्वीर में
क्या यही बनाना चाहता था मै इसे बनाते हुए?
दो लफ्जों से अंदर कितनी है तोड़ फोड़ मची हुई
तफ्तीशे-ख़तो-खाल हो,कब तक रह पाएंगे सँवरे हुए
क्या मैंने छुपा के रखा था कुछ उन दिनों
जो घट रहें हैं वापिश लम्हें बीते बिताये हुए
मैं समन्दर में उतरूँ कि तुम किनारा ढूंढने लगो
मारेगी यही बात मोहब्बत की तड़पाते हुए
गम कहाँ जाने वाले थे रायगाँ मेरे
रखा है एक रिश्ता खुद से बनाये हुए
-रोहित
अफलातून = बडप्पन कि शेखी बखेरने का विचार , तफ्तीशे-ख़तो-खाल=तिल और चमड़ी या नेन नक्शे कि जांच, रायगाँ= व्यर्थ।