Sunday, 30 December 2012

शहरे-हवस

"मैं जीना चाहती हूँ"

चंद  दरिंदों ने नोंच खाया जिसे,फिर भी
सरफिरी जाँ बपा थी ..बेजान बदन में।

शहरे-हवस  में  जीना  हुस्ने-क़बूल  तक़रीर  उसका, शहर कोई 

नया बसा लें वर्ना फिर किसी घटना घटने का डर है जह्न में।



"माँ मेरे साथ जो भी हुआ
किसी को मत बताना ...."

जी भी  लेते  इस  तूफां  को  पार कर, फिर इसी
शहरे-बेहिस में कतरा-कतरा मरना पड़ेगा।


हजुमे-बेखबर ना रही फ़र्शे-ख़ाक पर, अब
फ़लके-नाइन्साफ़ को  भी  बदलना  पड़ेगा।





बपा=उपस्थितशहरे-हवस=वासना का शहर हुस्ने-क़बूल =श्रद्धा से स्वीकृति तक़रीर=बयान. शहरे-बेहिस=संवेदनाशून्य शहर.   हजुमे-बेखबर=सूचनाहीन भीड़फ़र्शे-ख़ाक=जमीन परफ़लके-नाइन्साफ़=अन्यायी आकाश.


वो लड़की जो चली गयी जाते जाते एक सवालिया निसान छोड़ गयी ..
हमारे समाज पर, हमारी पौरुस्ता पर।
उसकी आखरी इच्छा भी पूरी नहीं कर पाए "मैं जीना चाहती हूँ"
उसका दर्द, उसका हौसला, उसका जज्बा, उसकी चाह, उसका संघर्ष हम कभी नहीं भूलेंगे। उसका यूँ युवा शक्ति को जागृत करना, अधिकार और न्याय के लिए लड़ना सिखा जाना .. फिर होले से उसका रुख़्सत होना... उसकी इन अदाओं ने मुझे झकझोर दिया था ... मैं कुछ सोच नहीं पाता था, दिमाग सुन पड़ गया था। तो मैंने कुछ दिनों के लिए ब्लॉगिंग भी बंद कर दी थी। वो बैचेनी, वो दर्द शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता।
             Salute to the Brave Girl .... May our Hero rest in peace.



Saturday, 15 December 2012

नम मौसम, भीगी जमीं ..

 
सर्दी की लम्बी काली रातें
तन्हाइयां और
घड़ी की टक..टक..टक

सुबह तलक, क़हरे-हवा  
बबूल से टपकती
शबनमी बूंदें टप..टप..टप
नम मौसम, भीगी जमीं।

      By:-
**रोहित**

क़हरे-हवा=यादों का क़हर (कविता के अर्थ में) / हवा की विपदा (शाब्दिक अर्थ) 

Tuesday, 11 December 2012

बेतुकी खुशियाँ

 एक रास्ते के किनारे पर एक घना सा पेड़ है, उस पेड़ पर बसी पक्षियों की एक बस्ती है। जितना घना वो पेड़ उतनी घनी वो बस्ती हैं। बड़ी ही सुन्दर व दिलेफ़रोज़।
                         
                           इस सर्दी की वो काली रात जिस रात को किसी की बरात गुजरी उस पेड़ के नीचे से और बराती अपनी धुन में DJ पर मस्त नाच रहे थे और रह-रह कर पटाखे भी फोड़ रहे थे।
                        
                           पर पेड़ पर रहने वाले पक्षियों को इस शौरगुल की आदत थी ही नहीं। परिंदों के बच्चे डर के मारे दुबक गये प्रत्येक पटाखे की आवाज पर चीख निकल रही थी, पंख फड़-फड़ा  रहे थे,न ही वो उड़ पा रहे थे और न सो पा रहे थे। उनकी आँखों से नींद कोसों दूर जा चुकी थी।  अब बरात वहां से चली गयी लेकिन परिंदों ने वो सारी रात जाग कर गुजारी और अब सूरज निकलने में अभी 2 या 3 घंटे बाकी थे .. बेचारे पक्षियों को तनाव व थकान की वजह से झपकी लग गयी। अब चूँकि थकान व देर से सोने वाले को नींद गहरी आती है तो पक्षियों का भी शायद अब देर से जगना होगा। मगर ये क्या एक भूखे बिल्ले ने अपना दांव खेला और उस पेड़ पर चढ़ कर नींद में डूबी बस्ती पर हमला बोल दिया.
              
                          " सारी की सारी बस्ती उजड़ गई थी। रात को फड़-फड़ाने वाले पंख कुछ जमीं पर फैले पड़े थे कुछ अभी हवा में थे।  सन्नाटा पसरा पड़ा था। लेकिन पेड़ की टहनियों से टपकती लहू की बूंदों की आवाज के आगे उन पटाखों की आवाज बड़ी तुच्छ जान पड़ रही थी। किसी की खुशियाँ किसी की जान पर बन आई थी। बसी बसाई बस्तियों के उजड़ने के अंजाम पर किसी की बस्ती बस चुकी थी। "


                                                                  By:
                                                           ~* रोहित *~

( " ये मेरी पहली कहानी हैं .. आपको ये कैसी लगी और ये भी बताईयेगा की मैं कहानी लिखने के लायक हूँ की नहीं " )






Thursday, 6 December 2012

दर्पण सा बना मैं

मैं,
साधारण सा कांच 
Image courtesy-Google.com
जेसे 'शीशागर' ने बनाया
एकदम पारदर्शी,बिल्कुल साफ

पर ज्यूँ ही तूँ आई इस कांच के सामने
अपनी पारदर्शिता ख़त्म कर ली मैंने,
एक तरफ चाँदी की परत आ गयी हो जेसे
जैसे किसी ने जादू कर दिया हो.

मैंने कैद कर लिया तुम को,
मेरे हर ज़र्रे में समाई हो तुम
दूर से देखना कभी दम-ब-खुद सा पड़ा हूँ
अन्दर झांक कर देखना कभी
तेरा ही अक्स लिए खड़ा हूँ.
तेरे लिए थोड़ा सा बदला हूँ
कांच से बस दर्पण ही बना हूँ।

      By-
~*रोहित *~

शीशागर=भगवान(कविता के अर्थ में)/ कांच का सामान बनाने वाला (शाब्दिक अर्थ)