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युद्धभूमि में
लौहे के पैने अँगारों की वर्षा में
मैं जब कोहनियों के बल
सुन पड़ी टांग को घसीटता हुआ
जेब में भरी वतन की मिट्टी के संग
पत्थर की ओट में आ गया हूँ
कराहने को दबाकर
घुटने के नीचे लगी दो गोलियों वाला पैर टनटोलते वक्त
देश प्रेम के भाषण या
वतन की रक्षा का वचन
याद नहीं आते,
और उस मिट्टी को नहीं चूमता
जिसमें बारूद और लहू की मिलावट से अजीब गंध है।
मुझे याद आती है वो
बैचेन और बेसुध सी शक़्ल
जो मुझे जंग में भेजना नहीं चाहती
जो मुझे जंग में सोच कर सिहर जाती है
जिससे अलविदा कहते नहीं बना
वो जो मेरे चिथड़े देख कर आजीवन खुद को कोसेगी।
मैं जो यहां हूँ
देख रहा हूँ
उस पार खेमे वाला
भयभीत और खुशी का मिश्रण है-
शुक्रगुज़ार है कि उसके गोश्त में गोली अभी धँसी नहीं,
यहां जिंदगी के अलावा
किसी को ऐसी मातृभूमि नहीं चाहिए।
पक्ष या विपक्ष दोनों ओर
युद्ध में धकेलने जैसी बाध्यता हटा दी जाएं तो-
मैदानों में जिंदगी खेलती
स्वदेश ही सर्वोपरि होता
अपनी अपनी अंदरूनी आपदा से रक्षा होती।
मैं जो यहां हूँ
चाहता हूं
प्रेम की संधि करना
जिसे युद्ध से निकाल के
वतन के हृदय में धँसा दूँ
बस कि वतन में वतनी जहन पैदा हो
बस कि आइंदा से लहू में घुसे
लौहे को सोने का तगमा ना मिले।
-रोहित