Tuesday, 17 March 2020

सर्वोपरि?


taken from google image


युद्धभूमि में
लौहे के पैने अँगारों की वर्षा में
मैं जब कोहनियों के बल
सुन पड़ी टांग को घसीटता हुआ
जेब में भरी वतन की मिट्टी के संग
पत्थर की ओट में आ गया हूँ
कराहने को दबाकर
घुटने के नीचे लगी दो गोलियों वाला पैर टनटोलते वक्त
देश प्रेम के भाषण या
वतन की रक्षा का वचन
याद नहीं आते,
और उस मिट्टी को नहीं चूमता
जिसमें बारूद और लहू की मिलावट से अजीब गंध है।
मुझे याद आती है वो
बैचेन और बेसुध सी शक़्ल
जो मुझे जंग में भेजना नहीं चाहती
जो मुझे जंग में सोच कर सिहर जाती है
जिससे अलविदा कहते नहीं बना
वो जो मेरे चिथड़े देख कर आजीवन खुद को कोसेगी।

मैं जो यहां हूँ
देख रहा हूँ
उस पार खेमे वाला
भयभीत और खुशी का मिश्रण है-
शुक्रगुज़ार है कि उसके गोश्त में गोली अभी धँसी नहीं,
यहां जिंदगी के अलावा
किसी को ऐसी मातृभूमि नहीं चाहिए।
पक्ष या विपक्ष दोनों ओर
युद्ध में धकेलने जैसी बाध्यता हटा दी जाएं तो-
मैदानों में जिंदगी खेलती
स्वदेश ही सर्वोपरि होता
अपनी अपनी अंदरूनी आपदा से रक्षा होती।

मैं जो यहां हूँ
चाहता हूं
प्रेम की संधि करना
जिसे युद्ध से निकाल के
वतन के हृदय में धँसा दूँ
बस कि वतन में वतनी जहन पैदा हो
बस कि आइंदा से लहू में घुसे
लौहे को सोने का तगमा ना मिले।
-रोहित

Sunday, 8 March 2020

कविता २

'उम्मीद बाकी है हम में ही' 


















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एक वक्त था जब
महकते थे फूल बहुत
ऋतुएं आबाद होती थी
लय की बात होती थी
संगीत झरते थे अल्फ़ाज़ डूबते थे
हीर रांझे सा इश्क़ पिरोये
मैं नाचती थी कि मेरी एड़ियों की थाप से
कागज़ फट जाया करता था
ऐसी बिछड़न थी समाई कि
गीले पन्ने हाथ की छुअन से चिपकते थे
स्याही फैलने तक मेरे वजूद का अहसास था
एक वक़्त था जब-
पगडंडी, रास्ता, खेत, बगीचे, गांव-शहर
सब का सौंदर्य गले तक भरा रहता था 
मेरे अंदर के ज्ञान, वाणी, धर्म या दर्शन ने
आदमी को आदमी बनने की सहूलियत दी है-
मैं मगर अब भी बीसियों हज़ार साल बाद भी
मेरे जन्मदाता के
उन्हीं समांतर विचारों से बैचेन हूँ
दोहराव का मतलब है
जन्म और जन्म के बाद फिर जन्म
ये क्रिया न मरण है ना ही जिंदगी
मात्र अल्फ़ाज़ के हेर फेर से बेदम हूँ
लय या संगीत जैसी मिलावट से ऊब चुकी हूँ।

हे मेरे जन्मदाता!
तुम अगर नींव ही बनाते रहोगे
तो ये कोरी बर्बादी है और मेरे क़त्ल में सहयोग
मैं नहीं कहती की मेरी नींव में लगे
हर एक विचार, अल्फाज, लय या दर्शन
अब काम के नहीं रहे
बल्कि इनको काम में लेने के बाद जो बचता है
उस मकां की ईंट धरी न गयी।
नींव में जो परिश्रम लगा है
वो आज एक सुविधा है-
कि कुछ बातें मान ली जा सकती है
कि वो पहले से सिद्ध हैं और प्रमाणिक है।
उनको कुरेदना छोड़, नया बुनना सीखो
मुझ में नए प्राण फूंको
मुझे आधुनिकता की गंद चाहिए
मुझे वास्तविकता से अवगत होना है
मैं कमजोर नहीं कि जान के रो दूंगी
मुझे पत्थरबाज़ी में उतारो
मैंने खूब मय पी है
मुझे कुरूपता से प्यार है
अब मुझे वो आंगन चाहिए
जहां से सुंदरता की अर्थी विदा की जा सके
और मातम को चूमा जा सके
अपने कटे होठों वाले मुँह से
कौमी एकता को प्यार का बोसा दूँ
ताकि इसमें अपने दांत गढ़ा सकूं।
मुझे इतिहास नहीं आज का कांच बनाओ
मुझसे ताजा दर्द को जोड़ो
मेरी बुनियाद को जाल का तगमा ना दें
कविवर! खुद को फंसी चिड़ियाँ न माने।
     
                         BY
          ROHITAS GHORELA

लिंक- कविता