सड़क पर किसी सज्जन के
कुछ दाने बिखरे थेली से
कौन जाने कितनी मुद्दतें हुई
कुछ पंछी थे भोले-भाले से
न कुछ सौचा न समझा
आ बेठे बेचारे इस सड़क पर
अब मग्न हुए चुगने में
बिखरे हुए दानो को
फिर अचानक.....
एक रफ़्तार
सड़क पर अब था लहू और
बिखरे हुए पंख
न थी तो वो चंद जिंदगियाँ
अब बिखर गयी जिंदगियाँ
बच्चे रफ़्तार वालो के भी हैं
बच्चे पंछी के भी,
बच्चों को इंतजार हैं की लौट के आयेंगे
मगर अब इंतजार में हैं फर्क बड़ा
किसी का इंतजार पल भर का
तो किसी का इंतजार उम्र भर का
ये लालच ही तो था "रोहित"
रफ़्तार को अपने घर पहुँचने का
और पंछी को अपना पेट भरने का |