Sunday, 13 December 2020

समानता

taken from Google Image 

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मैं तुम्हें देख रहा हूँ
मेरे साथ पढ़ती हुई
और साथ में ही देखता हूं 
तेरे माथे पर बिंदी
छिदवाए नाक में नथ
छिदवाए कान में बालियां
गले में फसाई गयी सांकली
हाथों में पहनी चूड़ियां 
पैरों में अटकाई गयी पायजेब
तब दुध में खटाई की तरह गिरती है ये सोच 
कि क्या ये सब शृंगार ही है??
और तुम पढ़ती जाती हो मेरे साथ
चुप चाप बेमतलब सी।
तुमने मेरी मानसिकता के हिसाब से 
अपनी आजादी को गले लगाया है 
मैंने भी तेरी गुलामी का तुझे अहसास ना हो 
बेहोश करने वाला एक जरिया निकाला है 
"तुम सोलह शृंगार में कितनी खूबसूरत लगती हो"
और तेरा कद तेरे मन में मेरे बराबर हो जाता है।   

-Rohitas Ghorela 

Sunday, 20 September 2020

आत्मनिर्भता


सरकार; आप समझते हो उतना आसान तो नहीं                    
काम से बे-काम होकर आत्मनिर्भर होना आसाँ तो नहीं  
हम आदमीयों का सिर्फ आत्मनिर्भर होना
पेट में धंस रही आँतड़ियों को ओर अंदर तक धकेलना हो सकता है
आत्मनिर्भरता यानी आलोचनाओं का मर जाना हो सकता है
आलोचनाओं का मरना यानी 
लोकार्पण के समय अवसाद से भर जाना हो सकता है
जब अवसाद एकांत का परिणाम है
तो हमें किस दिशा की ओर बढ़ना है, सरकार?
किसी का साथ छोड़ देने से आत्मनिर्भता नहीं आती
सभी का साथ ही इसकी प्रयोगशाला है
सरकारें अपने मुद्दे 
आत्मनिर्भरता की मुर्दा
खिड़की पर लगे कफ़न जैसे पर्दे से ढंक दे
हम नागरिक जो कुछ काम के थे
बेक़ाम होकर -
हमारा पसीना जो त्वचा के गहरे में नमक बन चुका है
इसी कफ़न से पोंछने का अभिनय करेंगे
अभी हमें मात्र चहरे से खुश रहना सिखाया जाए
अभी हम चहरे से और मन से एक हैं
ये आप के लिए खतरा है।
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Tuesday, 7 April 2020

एक भी दुकां नहीं थोड़े से कर्जे के लिए


जनाबे जॉन एलिया साब की एक गज़ल आज के इस दौर पर कितनी सटीक बैठती है आप ही देख लीजिये इस गजल के चंद शेर-

ऐश-ए-उम्मीद   ही   से   ख़तरा   है
दिल  को  अब  दिल-ही  से  ख़तरा  है

जिस के   आग़ोश   का   हूँ   दीवाना
उस के   आग़ोश   ही   से   ख़तरा   है

है  अजब  कुछ  मोआ'मला  दरपेश
अक़्ल  को   आग ही   से  ख़तरा  है
  
शहर-ए-ग़द्दार  जान  ले  कि  तुझे
एक   अमरोहवी   से   ख़तरा   है

आसमानों  में   है   ख़ुदा   तन्हा
और  हर  आदमी  से   ख़तरा   है

अब  नहीं  कोई   बात   ख़तरे  की
अब सभी  को  सभी  से  ख़तरा  है




कोरोना जैसी महामारी के बारे में अब तक आपने खूब पढ़ लिया होगा और खूब ही जान लिया होगा। इस वक्त तक जब मैं ये लिख रहा हूँ; भारत में 4908 मामले और 137 मौते हो चुकी है।  इसमें कोई संदेह नहीं की बहुत सारे लोग ठीक भी हुए हैं; अब तक भारत में 382 लोग रिकवरी कर चुके हैं।  लेकिन इसके रोकथाम के सन्दर्भ में जाने-अनजाने में हमसे बहुत बड़ी गलतियां हो रही है। और ये गलतियां मैंने अपने अनुभव से जाना है। ये वो गलतियां है जो हर कहीं लिखी या सुनाई नहीं जा रही है।  गलतियाँ जो आमतौर पर हम कर रहे हैं वो ये कि--
1. रुमाल और मास्क में मास्क को ही चुने- बहुत से लोग मास्क की बजाय रुमाल बाँध लेते हैं। ये सही है कि रूमाल मास्क जैसा काम करती है लेकिन हम वही रुमाल हमारे कमरे तक ले जाते हैं, वही रुमाल बिस्तर पर डाल देते हैं, बहार से आते ही हम हाथ तो धो लेते है लेकिन उसी रुमाल से हाथ पूंछ लेते हैं।  बहुत से लोग वही रुमाल अपनी माँ या पत्नी से धुलाते हैं जिससे खतरा बढ़ जाता है।
2. हजामत ना करवाएं- वैसे तो सैलून या ब्यूटी पार्लर जैसी दुकाने बंद हैं लेकिन फिर भी नाई  (जाती सूचक शब्द ना समझा जावे)  का काम करने वाले घरों में जा-जा कर काम कर रहे हैं।  ऐसे काम करने वाले व्यक्ति सबसे ज्यादा संक्रमित हो सकते हैं क्यूंकि ये एक ऐसा काम है जिसे दूरी बनाकर नहीं किया जा सकता। इसलिए इनसे काम ना करवाएं ये आप और आपके नाई की सुरक्षा के लिए बेहतर होगा।  दाड़ी या केश बढा लो कुछ दिन- हो सकता है ये आपके रूप को ओर बेहतर बना दे।
3. गम्भीरता से लेने की जरूरत- सुरक्षा ही इलाज़ है, लॉकडाउन का सख्ती से पालन करें (हमें आने वाले 2 महीनों तक इसी लॉकडाउन की बहुत सख्त जरूरत है)  बहादुरी दिखाने की जरूरत नहीं है। जो भी लॉकडाउन का पालन नहीं करता है वो देशद्रोही ही नहीं वरन सम्पूर्ण वैश्विक सभ्यताद्रोही है। खुद को घर के कामों में, रसोईघर में, गार्डनिंग में या मनोरंजन में व्यस्त रखें। एक डॉक्टर के अंदाजे के मुताबिक भारत में यह आगे आने वाले अप्रेल-मई के दिनों में 1.5- 2 लाख लोगों को प्रभावित कर सकती है।
घबराएँ नहीं ये खुद को खुद तक ले जाने का सही समय है।

आइये अब ले चलता हूँ साहित्यिक रसपान यानि मेरी नई रचना की तरफ़-

एक भी दुकां नहीं थोड़े से कर्जे के लिए 


गलियाँ   जो   बनी   थी   सूनी  रहने    के    लिए
क्योंकर   किया   आबाद   एक   दफ़े   के    लिए

तुम तो क्या, कोई भी तो किसी का सानी नहीं है
खींचा दम तैयार है मगर दूर तक  जाने के  लिए

ए   मेरी  ज़िंदगी   की   आबो-हवा  पास  तो  आ
अब  तो  एक  ही  साँस   है  बाकी मरने के  लिए

तू  उस  कफ़स  से   छुटा   कर   आ   सकती है
मैं  भी  बैताब  हूँ  मेरे  कफ़स  में  लाने के लिए

नज़र   ही   क्या   बुरी  होती  हम  पर   उनकी
एक    सांस   ही   काफ़ी   है   मारने   के  लिए

बे-रूहों   में,   है    किस   बख़्त    की   बेवफ़ाई?
तुम   ना   मिलते   सिर्फ़     मिलने    के   लिए

अंदर शोर  मचाया गले  मिलने  को  किसी  ने
गला हद्द तक उतर  आया  बन्द  होने  के लिए

हर दुकाँ बन्द है आँखों  की  तरह  नशेबाज की
क्या एक भी दुकाँ नही थोड़े  से  कर्ज़े   के  लिए


- Rohit

Tuesday, 17 March 2020

सर्वोपरि?


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युद्धभूमि में
लौहे के पैने अँगारों की वर्षा में
मैं जब कोहनियों के बल
सुन पड़ी टांग को घसीटता हुआ
जेब में भरी वतन की मिट्टी के संग
पत्थर की ओट में आ गया हूँ
कराहने को दबाकर
घुटने के नीचे लगी दो गोलियों वाला पैर टनटोलते वक्त
देश प्रेम के भाषण या
वतन की रक्षा का वचन
याद नहीं आते,
और उस मिट्टी को नहीं चूमता
जिसमें बारूद और लहू की मिलावट से अजीब गंध है।
मुझे याद आती है वो
बैचेन और बेसुध सी शक़्ल
जो मुझे जंग में भेजना नहीं चाहती
जो मुझे जंग में सोच कर सिहर जाती है
जिससे अलविदा कहते नहीं बना
वो जो मेरे चिथड़े देख कर आजीवन खुद को कोसेगी।

मैं जो यहां हूँ
देख रहा हूँ
उस पार खेमे वाला
भयभीत और खुशी का मिश्रण है-
शुक्रगुज़ार है कि उसके गोश्त में गोली अभी धँसी नहीं,
यहां जिंदगी के अलावा
किसी को ऐसी मातृभूमि नहीं चाहिए।
पक्ष या विपक्ष दोनों ओर
युद्ध में धकेलने जैसी बाध्यता हटा दी जाएं तो-
मैदानों में जिंदगी खेलती
स्वदेश ही सर्वोपरि होता
अपनी अपनी अंदरूनी आपदा से रक्षा होती।

मैं जो यहां हूँ
चाहता हूं
प्रेम की संधि करना
जिसे युद्ध से निकाल के
वतन के हृदय में धँसा दूँ
बस कि वतन में वतनी जहन पैदा हो
बस कि आइंदा से लहू में घुसे
लौहे को सोने का तगमा ना मिले।
-रोहित

Sunday, 8 March 2020

कविता २

'उम्मीद बाकी है हम में ही' 


















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एक वक्त था जब
महकते थे फूल बहुत
ऋतुएं आबाद होती थी
लय की बात होती थी
संगीत झरते थे अल्फ़ाज़ डूबते थे
हीर रांझे सा इश्क़ पिरोये
मैं नाचती थी कि मेरी एड़ियों की थाप से
कागज़ फट जाया करता था
ऐसी बिछड़न थी समाई कि
गीले पन्ने हाथ की छुअन से चिपकते थे
स्याही फैलने तक मेरे वजूद का अहसास था
एक वक़्त था जब-
पगडंडी, रास्ता, खेत, बगीचे, गांव-शहर
सब का सौंदर्य गले तक भरा रहता था 
मेरे अंदर के ज्ञान, वाणी, धर्म या दर्शन ने
आदमी को आदमी बनने की सहूलियत दी है-
मैं मगर अब भी बीसियों हज़ार साल बाद भी
मेरे जन्मदाता के
उन्हीं समांतर विचारों से बैचेन हूँ
दोहराव का मतलब है
जन्म और जन्म के बाद फिर जन्म
ये क्रिया न मरण है ना ही जिंदगी
मात्र अल्फ़ाज़ के हेर फेर से बेदम हूँ
लय या संगीत जैसी मिलावट से ऊब चुकी हूँ।

हे मेरे जन्मदाता!
तुम अगर नींव ही बनाते रहोगे
तो ये कोरी बर्बादी है और मेरे क़त्ल में सहयोग
मैं नहीं कहती की मेरी नींव में लगे
हर एक विचार, अल्फाज, लय या दर्शन
अब काम के नहीं रहे
बल्कि इनको काम में लेने के बाद जो बचता है
उस मकां की ईंट धरी न गयी।
नींव में जो परिश्रम लगा है
वो आज एक सुविधा है-
कि कुछ बातें मान ली जा सकती है
कि वो पहले से सिद्ध हैं और प्रमाणिक है।
उनको कुरेदना छोड़, नया बुनना सीखो
मुझ में नए प्राण फूंको
मुझे आधुनिकता की गंद चाहिए
मुझे वास्तविकता से अवगत होना है
मैं कमजोर नहीं कि जान के रो दूंगी
मुझे पत्थरबाज़ी में उतारो
मैंने खूब मय पी है
मुझे कुरूपता से प्यार है
अब मुझे वो आंगन चाहिए
जहां से सुंदरता की अर्थी विदा की जा सके
और मातम को चूमा जा सके
अपने कटे होठों वाले मुँह से
कौमी एकता को प्यार का बोसा दूँ
ताकि इसमें अपने दांत गढ़ा सकूं।
मुझे इतिहास नहीं आज का कांच बनाओ
मुझसे ताजा दर्द को जोड़ो
मेरी बुनियाद को जाल का तगमा ना दें
कविवर! खुद को फंसी चिड़ियाँ न माने।
     
                         BY
          ROHITAS GHORELA

लिंक- कविता 


       


Friday, 14 February 2020

प्रार्थना

माना मैंने हर बात को क्रूर
बेढंग करके परोसा है
उसी कलम को विनती पर भी भरोसा है
ये कुछ ऐसा है जो समझ में आये
ये कुछ ऐसा है जो जहन में बसे
एक पक्षीय लिखने से पहले आपको सोचना पड़े-
कुछ ऐसा है क्यूंकि
हमारे मौसमों या ऋतुओं को
खेमों में बंट जाना पड़ता है
जिस किसी ने हर मौसम के अनुसार
अपना इंतजाम पुख्ता किया है
प्रार्थना है कि वो मौसम की खूबसूरती
का जिक्र अपनी बातों में ना छेड़े 
अलाव के साथ बैठकर
जो मजे से कह रहा था ठंड कड़ाके की है
कड़ाके शब्द को उसने नहीं जिया। 
जो नये साल पर कणकों में
आधी रात को पानी देता है
जिसके पैर जनवरी से जम गये हों
कस्सी की मार से पानी की बोछारें जब चहरे पर पडती है
और कभी क्यारी से टूटे पानी को रोकने के लिए
चादर की बुकल खोल देनी पडती है
तब होता है जनवरी व जिस्म का टकराव
और जिस्म की चटकनों की आवाज खेतों में गूंजती है
ऐसे आदमी को नहीं पता बार या कॉफ़ी हॉउसों में
बड़ी सी घड़ी में बीतने वाले साल के
आखिरी दस सेकंड का काम डाउन शुरू हो गया है
लोग साथ साथ में उलटी गिनती गिन रहे हैं
व शैम्पेन या व्हिस्की की बोछारें उछाली जाएगी
रंग बिरंगी रौशनी कोहरे में दब जाएगी
पटाखों की आवाज ठंडी रात को दहला देगी।
वो तो जमीन में खुदे चूल्हे पर चाय बनाएगा
दुआ करेगा
कि फसलों को पाला न मार जाये
उसकों नहीं मतलब कि बसंती फुल पीले होते हैं
वो ये जानने में व्यस्त है
कि सरसों की फलियों में दाना बना है या नहीं।

आप एयर कंडीशनर में बैठ कर अपने भाषणों में
इनकी मेहनत को 'मेहनत' नाम ना दें
जब तक कि आप को इसके असली मायने ना पता हो
खौलते कीचड़ में खाद देना
व तेज तपस में जब सब कोयला होने को हो
उसी में सफ़ेद बासमती कैसे पकता है
इसका आपको मात्र बातूनी ज्ञान है।

सावन की बरसातें बदन ठंडा करती हैं
जिस्मों को गिला करती है
मन में झूले पड़ते होंगे
लेकिन जब बरसातें रुके नहीं
तब कपासी फव्वों का जिस्म काले पड़ जाते है
और मेहनत पिंघलने लगती है
पेड़ों पर अंतकारी झूले पड़ते हैं
जिनकी सुर्खियां
चाय की चुस्कियों के साथ बासी हो जाती है

ये लोग मिलावट नहीं चाहते
जब उदासियाँ पनपती है तो भी
आपके साथ खिलखिलाते हैं
आपको चाहिए कि इन नकली हंसी को पहचाने
और मौन रहें
ताकि हौले से ये अपने मर्म को उजागर कर सकें
प्रार्थना है मौसम की खूबसूरती का कलमी बखान न करें
मौसमों को खेमों में ना बांटे,
अब हमें जरूरत है दूसरा व जमीनी रूप  जियें।
                               
               - रोहित 


Friday, 31 January 2020

लोकतंत्र

हम जो हैं
वर्तमान राजतंत्र के नितारे गए लोग
जब हमने राजतंत्र से ऊब कर
विद्रोह शुरू किया
अधिकारों की मांग रखी
समानता की बात हुई-
तब अविरल विरोद्ध को रोकना
इन राजतंत्रों के लिए जरूरी हो गया
विचारी गयी बात निकाली गयी
बदला या भड़ास निकालने का अधिकार दे दिया जाये
अब हम हर पांच साल में भड़ास निकाल कर ख़ुश हैं
 और फिर साढ़े चार साल तक शांत रहते हैं
और फिर चाचा को हटाकर भतीजा लाते है
और फिर ऐसे ही कभी चाचा कभी भतीजा
अब हमारी क्षणिक ख़ुशी का राज
यही निर्विरोध राजतंत्र-
जिसमें ज्यादा ख़ुशी और कम गुस्से से काम चलता है
न्याय, अधिकार, और समानता की अमर मांग
अब जहन में आने से रह गई है
मात्र सत्ता पलटने की बात
इन सब का उपाय लगने लगी है,
जहां बात बात पर फ़रमानी किताब
चुपी फैलाकर आंख मूंद लेती है
जब कभी जनता और राजा की  मिलावट हो
इसी किताब को छलनी बनाकर
मिलावट नितार दी जाती है
हम साधारण से लोगों को
राजतंत्र या बहरूपिया राजतंत्र से फर्क नहीं पड़ता।
हम गुस्सा निकाल कर खुश हो लेंगे
हमारी ही स्वीकृति से
जो लोग हुकूमत के मद्द में
अन्नदाता या सर्वज्ञ बन गए
उनकी असलियत इतनी ही है कि
इनको गरीबों की गलियां नहीं मिलती;
ठीक तीन लोक के ज्ञाता की तरह-
जिसको अपने ही हाथों से काटा सर नहीं मिला
और परिवारवाद के लिए
मासूम माँ के बच्चे का सर कलम कर दिया
बस ध्यान इतना सा रखा जाता है कि
मौका-ए-वारदात पर माँ को पता न चले
बाद में माँ पर क्या बीतेगी ...
कौन जानने की जरूरत करता है।
क्योंकि अन्नदाता खुद को जनता स्वरूपी
व बेटे को जनता का ही एक अंश बताता है
अत: हमारी तो ख़ुशी का ठिकाना शेष नहीं
हमारे जहन में जो तंत्र है, हमने
उसी का नाम लोकतंत्र रख रखा है।
और लोहे पर लकीर जैसी कोई किताब
की आवश्यकता नहीं रही
हम पहले से ही नितारे गए लोग हैं।

- रोहित
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