देखो घर कहीं गुम होने जा रहा हैं
बेटा, बाप से न्यारा होने जा रहा हैं
क्या मंज़रे-पुरहौल है इस पिता के लिए
फिर भी पंडित शुभ और मंगलकामना के मंत्र
पढ़ रहा है एक नये घर में,उसके बेटे के लिए।
ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक कितना रुला रही थी पिता को
गमजदा दिल लिए हुए पड़ा है
किसी वीरान कोने में
याद कर रहा हैं वो पल
वो दशहरा ,वो दीपावली
वो रंगा-रंग होली
वो बेटे की बच्चपन वाली ठिठोली,
सब चला गया, सब आँखों के सामने तैर रहा हैं।
एक हरा - भरा पेड़ बेशाख-शजर हो गया
जिस प'खिलने थे फूल बेबर्ग-शजर हो गया।
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अँधेरे कोने में बैठा दिले-तन्हा,
दम-ब-खुद सा ,पिता अब
इस दर्द को अपने अन्दर समा रहा है
दी हुई क़ूल्फ़तें अब कबूल कर रहा है
दर्दे-ख्वाब ये नजर आ रहा है, जिन्दगी
जो बची है बिना सहारे के काट रहा हैं
देखो घर कहीं गुम होने जा रहा हैं
बेटा, बाप से न्यारा होने जा रहा हैं।
By
~रोहित~
(इस कविता का शीर्षक मख्मूर सईदी जी की एक किताब "घर कहीं गुम हो गया" से लिया गया हैं।)
मंज़रे-पुरहौल=डरावना दृश्य. ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक=सम्बन्ध विच्छेद होने की कसक. गमजदा =दुःख से भरा. बेशाख-शजर=बिना टहनी का पेड़. बेबर्ग-शजर=बिना पत्तों का पेड़. दम-ब-खुद सा=मौन. क़ूल्फ़तें=कष्ट.