Friday, 18 May 2018

हाथ पकडती है और कहती है ये बाब ना रख (गजल 4)




 मददगार है तो हिसाब ना रख
लेन-देन की  किताब  ना  रख।

सामने समन्दर है तो! लेकिन पानी-पानी
प्यासे के काम न आये ऐसा आब ना रख।

ये सज़ा जो तूने पाई है, खैरात में बाँट
तेजाब से जले चहरे पर नकाब ना रख

होगी किसी मजबूरी के तहत बेवाफईयाँ 
तू उसे सोचते वक्त नियत खराब ना रख 

हर शाम वो अंदर से निकल कर सामने बैठती है 
हाथ पकडती है और कहती है ये बाब ना रख 

अभी थी वो यहाँ,यहाँ नहीं है अब; वहां है क्या वहाँ है?
अब तो गुजर चूका हूँ मै ए सहरा अब तो सराब ना रख 
     



       By
       "रोहित"

बाब =संबंध,  सराब = मरीचिका





Wednesday, 2 May 2018

खैर

google से ली गयी
जला दिया,दफना दिया,बहा दिया
फिर भी पैदा होते रहते हो; हे शैतान
तुम किस धर्म से हो ?

तुम पुछ रहे हो तो बतला रहा हूँ मैं
जूं तक मगर रेंगने वाली नहीं
मेरे आखिरी वक्त पर
मेरे मृत शरीर पर तुम
थोंप ही दोगे तथाकथित धर्म अपना.

सुनो! मानवता रही है मुझ में
सच को सच कहा है, खैर
भैंस के आगे बीन क्यों बजाऊं-
तुम एक दायरे में हो
आभासीय स्वतन्त्रता लिए हुए.

मेरा मुझ में निजत्व है शामिल
घृणा है इस गुलामी से
अब ना कहूँ कि किस धर्म से हूँ
थोडा कद बड़ा है मेरा
इंसान हूँ मगर
तुम तो शैतान कहो मुझे
ये तो मन की मन में रहेगी तेरे
कि भविष्य में ना कोई मेरी पदचाप ही बचे
ना तुम्हारा धर्म बाँझ हो.

 By-
रोहित