Wednesday, 13 November 2019

ख़ाका

पुरानी डायरी से कुछ पंक्तियाँ:

  १ 
एक डायरी लिखने का शौक था 
पन्ने दर पन्ने तुझे मुकम्मल करना था 
तू जाती रही 
सब जाता रहा
हम जो रहेंगे झुंझलाहट लिए,
हम जो हैं गुजरे लम्हों के ख़ाका मात्र,
हम जो हैं  लबों में कुलबुलाहट सिये, 
आजीवन छटपटाहट, एक लम्हे का फैसला मात्र । 
             
  २ 
जी का ना लगना 
बेसब्री का सहारा मिलना 
तमाम होना तमाम बातों का 
             
          
   ३ 
जमाने को मैंने देखा इस तरह 
आँखों में गिरी सूरज की किरणें 
थोड़ी सी जली लेकिन 
                            चमकदार हो गयी ।                                                
          
  ४ 
जिसने एक बार 
सफल होने की 
नाकाम कोशिश की हो 
उसके यहां 
धूल फांकती है मोहब्बत । 

                                   - रोहित 

Wednesday, 6 November 2019

जागृत आँख

क्या ही इलाज़ करें खुद का
खुदी से हो नहीं सकता बुलन्द इतना
सहारा मिले तो मिले सकूं
झर रहा है इंसां
गिर गए नाखून
पिंघल रही उंगलियां
रीत गए हैं हाथ
फिर भी ये बेमुद्दा खालिद कितना?

ढाँचा है कि गिरने वाला है
और ताक रहें हैं सब मुझे,
खिलखिलाते हुए
सांचे हाथ में लिए हुए
भूल चुके हैं शिल्पकारी
जब याद आएगी
आ चुकी होगी बारी इनकी
फिर कोई हंसेगा, खिलखिलायेगा
बग़ल में खाली साँचा हाथ लिए
छा जाएगा मौन और देखेगा
हज़ारों चीखों भरी शांति, तब तक 
निकल पड़ेगी आंखे बिना पलक
खून की एक धार बांधे
जा पहुंचेगी उसके पैरों तले
जो आसीन है ऊंचे पद पे
जिसके विध्वंस ही मनोरंजन है
जिसके अपने थे बेरहम मुद्दे
जिनमें उलझे रहे तुम
जिनमें भूले निज कर्म, लड़े तुम
मगर वो होले से कुचलता आया है
हर आख़िरी समय की जागृत आंख को
इस तरह फैल ना सकी
तेरी मेरी क्रांति।

                                - रोहित

Google image से लिया गया।