Thursday, 9 October 2014

सब थे उसकी मौत पर (ग़जल 2)




from Google image


प्यार  की नियत, सोच, नज़र  सब  हराम  हुई
इसी सबब से कोई अबला कितनी बद्नाम हुई.

इंतजार, इज़हार, गुलाब, ख़्वाब,  वफ़ा,  नशा
उसे पाने की कोशिशें तमाम हुई सरेआम हुई

नहीं,तेरा पलट के देखना, तेरा पुकारना बरमल्ला
अपनी  मोहब्बत तो  तेरे चले  जाने  से आम  हुई

बढ़ी हुई  दूरियां  मोहब्बतों  में  तब्दील  हो गयी 
बच्चपन तो बच्चपन था जवानियाँ नीलाम हुई 

सब थे उसकी मौत पर आये हुए जो दिन में मरी 
न था तो कोई उस मौत पर जो उसे हर शाम  हुई.

"रोहित"

Thursday, 18 September 2014

पासबां-ए-जिन्दगी: हिन्दी

आँखों के सामने
जीते जी मार दिया है

कुछ 'हमपरवाजों' ने
ना समझी में
उसे जो जिन्दा है
मुझ में
और मेरे बाद
मेरे लिखित अलिखित अल्फाजों में,
मुमकिन है उनमें भी, जो
इसके सम्मान को कम लिखते हैं
गिरा लिखते हैं.

हिंदी अजर है
और अमर रहेगी
कैसी सोच, कैसे दिन हैं
ये भी बताना पड़ता है उनको
जिन्होंने इसे काबिले-रफ़ू समझा
उनकी पासबां है हिंदी
जब भी लिखने बैठता हूँ अल्फ़ाज़
मेरी जबीं को चूमती सी लगती है हिंदी
माँ की तरह
जो एक दुसरे में 
प्राण फूंकते रहते हैं.

        "रोहित"

हमपरवाज़= साथ में उडान भरने वाले, काबिले-रफ़ू = रफ़ू कराने योग्य,   पासबां = द्वारपाल, जबीं = ललाट


Thursday, 4 September 2014

रंगरूट

एकांत में बैठा
सुन्न शरीर  और

खुली आँखों से भी 
दिन की चहल पहल और 
रात के तारे भी
नजर नहीं आते.
ख्याल में डूबा है
कोई रंगरूट कि 
क्यों जान लेती है
सीमा पार से
आई गोलियां
हर रोज होता है
उल्लंगन
और बनता है तमासा
अपनों की मोत का
अभ्यास में भरे
जज्बे जोश को क्यों
बेकद्री में रखा गया 
क्यों लगता है जैसे
बैठें हों अपने ही घर में दुबक कर
और मुन्तजिर हो अपनी मौत का.
गरमा जाती है सियासत
चंद दिनों के लिए, मगर
रंगरूटों के

All 3 are taken from Google.com

हिम्मती  हौसलों और जज्बातों पर
बेख्याली के पर्दे डले है

उस पार
मखौल बना है हमारा
कमजोर और बुझदिली का
तभी तो हिम्मत हैं उनमे कुकृत्य की

ये दस्तक ही है ऐसी मौतों की
चंद परिवारों के अलावा
किसको फर्क पड़ेगा।

                                           By :-            
                                           रोहित


रंगरूट = नए सैनिक   मुन्तजिर = प्रतीक्षित