Saturday, 25 December 2021

मगर...



मैंने चाहा  
एक साथ 
एक घर 
ढेरों बातें 
और उसकी बाँहों में सिमट जाना 
मगर... चलो कोई बात नहीं 

मैंने चाही 
पहली सी मुहब्बत 
महीने में कुछ ही बातें 
मुलाकातें ना ही सही 
मगर... चलो कोई बात नहीं 

मैंने चाहा 
वार-त्योहार पर कम से कम 
हाल चाल से वाकिफ़ होना 
दीदार ना ही सही 
मगर... चलो कोई बात नहीं 

आख़िर मैंने चाहना कम किया 
वो कहती भी रही कम का 
मगर कम भी तो कितना कम होता 
अब कम क्या विलुप्त का पर्याय होगा 
मगर.... चलो कोई बात नहीं 

मुहब्बत जाया ही सही 
नजदीकियाँ बदसूरत ही सही
कोंपल का फूटना ही सही 
मगर... चलो कोई बात नहीं।  

-Rohit
from google image
 

Tuesday, 9 March 2021

अर्थों के अनर्थों में

हमें भुलवा दिया जाता है
अर्थों के अनर्थों में क्या छुपा है
एक दिन की महिमा के अर्थ से 
364 दिनों के अनर्थों का क्या हुआ?
या सुना दिया जाता है अनर्थों के अर्थ को निथार के
अनर्थों के लाभ को कोई जान न ले 
इसलिए अर्थों की सीमा के बाहर की दुनियां नष्ट कर दी गई
ये घाव न नासूर बनता है न भरता है।
विडंबना के घाव को कुरेदते वक्त
खून नहीं पानी निकलता है
क्योंकि इस चूल्हे में जलने वाली आग,
राख तक के निशाँ गहरे दबा दिए गए।

प्रकृति में समाज निर्माता आदमी ने
समाज में प्रकृति की कोई व्यस्था न की
इसने खुद के सिवाय सभी को मृत चमड़ी माना
वो भूल गया ईडन गार्डन से साथ में निकली औरत को।
वहां से आज तक के सफ़र में
कौनसी मानसिकता का संकीर्ण मोड़ आया
जो आपको इतना आगे पीछे होना पड़ा,
किस बात का भय था और किसको था
जो बराबर की हस्ती तेरी मुठ्ठी में आ गयी।

वो सब कुछ बन गयी तेरे लिए-
तेरे लिए क्यों बनी वो?
सागर भी, झील भी
बहती नदी भी, मोरनी भी
फूल भी, सावन की सुहावनी बूंद भी
मगर औरत औरत न बन पाई
वो पर्दे में क्यों आ गयी
क्यों जिस्म छुपाना केवल इसे ही जरूरी हो गया
हमें भुलवा दिया जाता है
अर्थों के अनर्थों में क्या छुपा है।
  By- ROHIT

Thursday, 4 March 2021

गुजरे वक़्त में से...

हम कितनी तेज़ी से गुजरे 
उस गुजरे वक़्त में से
बगैर मुलाकात किये इज़हार तक पहुंच गए
नतीजन विफलता तक पहुंच गए
कितनी चीजें हाथ में से निकल गयी
तेरा साया तक छूने से जो खुशियां थी; फिसल गई,
बालों की चांदी तक निकल गयी
हमारे ख़र्च होते हर एक लम्हा ख़्वाब बने
एक सिगरेट उंगलियों में फंसी रह गयी।
जिसे उंगलियों में रखनी चाही वो क़लम
और कश्मकश बयाँ  न कर सकने वाले अल्फ़ाज़ से भरा मैं
बस निब है जो टूटती रहती है
क़लम है जो झगड़ती रहती है।

आसमाँ की जगह सागर देखा
सागर की जगह आसमाँ देखा
मैंने तैर कर चांद पर पहुंचना चाहा
और तड़फ ये कि तारों पर ही ठहर गए
तमाम उम्र हक़ीक़त ने परेशान न किया
ख़्वाबों ने लूट लिया
ख़्वाब जो तेरा था ज़िंदगी बन गया
ज़िंदगी जो मेरी थी  ख़्वाब बन गया।
हम बस उसी तरह से गुजर जाएंगे
एक ही तो रस्ता है वहीं से निकल जाएंगे।
                -ROHIT


Friday, 1 January 2021

समानता २

taken from Google image 




















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मुझे रिवाजों का हवाला ना दें 
मुझे अंधेरों वाली मशालें ना दें 
एक जुर्म जिसे दुनिया का हर एक 
आदमी रिवाजों के हवाले से करता हो- तो 
मैं पूछता हूँ क्या वो जुर्म; जुर्म नहीं रहता 
मैं कहता हूँ विवाह एक जुर्म है 
इस जुर्म की सज़ा क्यूँ नहीं 
हर बार डोली में चहकती-चीखती चिड़िया ही क्यों?
बेटी को बाप से अलग करना जुर्म है 
माँ के घर बेटी का मेहमां हो जाना जुर्म है 
घर को उसका अपना घर न होने देना जुर्म है 
जबरदस्ती का अन्यत्र समायोजन जुर्म है 
पली बडी लडकी पर अधिकार करना 
घिनोना ही नहीं जुर्म है

तो फिर दुनियां कैसे बढ़ेगी?
सवाल का जवाब रिवाजों के हवाले से क्यों सोचें 
सोचें कि प्रजनन और प्यार दोनों अलग विषय हैं 
हर बार के विवाह में प्यार की सुविधा नहीं 
हर बार के विवाह में प्रजनन की सुविधा है
आप अपनी पशुता को पशुता क्यों नहीं मानते  
मैं पूछता हूँ ये जुर्म नहीं तो क्या है? 

पूछना चाहोगे कि विवाह की रस्म कैसे हो?
मैं कहता हूँ मानसिक तैयारी जरूरी है
ये जो जुर्म है उसे कबूल करना जरूरी है 
रस्मो-रिवाज में घुन लग गये ये मानना जरूरी है  
सवाल-जवाब के खातिर आमने-सामने होना जरूरी है
अइयो मिलने मैं मिल जाऊंगा जिंदगी में से जहर फांकते हुए 
अंधेरों में तीर चलाते हुए 
मुझे रिवाजों का हवाला ना दें 
मुझे अंधेरों वाली मशालें ना दें. 

-ROHIT