देखो घर कहीं गुम होने जा रहा हैं
बेटा, बाप से न्यारा होने जा रहा हैं
क्या मंज़रे-पुरहौल है इस पिता के लिए
फिर भी पंडित शुभ और मंगलकामना के मंत्र
पढ़ रहा है एक नये घर में,उसके बेटे के लिए।
ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक कितना रुला रही थी पिता को
गमजदा दिल लिए हुए पड़ा है
किसी वीरान कोने में
याद कर रहा हैं वो पल
वो दशहरा ,वो दीपावली
वो रंगा-रंग होली
वो बेटे की बच्चपन वाली ठिठोली,
सब चला गया, सब आँखों के सामने तैर रहा हैं।
एक हरा - भरा पेड़ बेशाख-शजर हो गया
जिस प'खिलने थे फूल बेबर्ग-शजर हो गया।
Image courtesy -photobucket.com |
अँधेरे कोने में बैठा दिले-तन्हा,
दम-ब-खुद सा ,पिता अब
इस दर्द को अपने अन्दर समा रहा है
दी हुई क़ूल्फ़तें अब कबूल कर रहा है
दर्दे-ख्वाब ये नजर आ रहा है, जिन्दगी
जो बची है बिना सहारे के काट रहा हैं
देखो घर कहीं गुम होने जा रहा हैं
बेटा, बाप से न्यारा होने जा रहा हैं।
By
~रोहित~
(इस कविता का शीर्षक मख्मूर सईदी जी की एक किताब "घर कहीं गुम हो गया" से लिया गया हैं।)
मंज़रे-पुरहौल=डरावना दृश्य. ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक=सम्बन्ध विच्छेद होने की कसक. गमजदा =दुःख से भरा. बेशाख-शजर=बिना टहनी का पेड़. बेबर्ग-शजर=बिना पत्तों का पेड़. दम-ब-खुद सा=मौन. क़ूल्फ़तें=कष्ट.
बहुत उम्दा!
ReplyDeleteआजकल के हालात की सार्थक प्रस्तुति!
भाई साहब आज के हालात को बयाँ करती एक बेहद सुन्दर सार्थक रचना उम्दा प्रस्तुति बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteआज के हालात की सार्थक सटीक प्रस्तुति,,,रोहितास जी, बधाई
ReplyDeleteRECENT POST LINK...: खता,,,
"घर कहीं गुम हो गया...और होने जा रहा है"
ReplyDeleteबहुत खूब...उम्दा भाव |
सादर
-मन्टू
बेटा बनता है बाप
ReplyDeleteसामने बाप के
आता है होश,जब
समय दुहराता है खुद को!
कटु सत्य को बयाँ करती संवेदनशील अभि्व्यक्ति
ReplyDeleteउम्दा रचना आज के युवा पीढ़ी के गाल पर तमाचा मारने वाली रचना है!
ReplyDelete
ReplyDeleteThursday, 1 November 2012
घर कहीं गुम हो गया
देखो घर कहीं गुम होने जा रहा है
बेटा, बाप से न्यारा होने जा रहा है
क्या मंज़रे-पुरहौल है इस पिता के लिए
फिर भी पंडित शुभ और मंगलकामना के मंत्र
पढ़ रहा है एक नये घर में,उसके बेटे के लिए।
ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक कितना रुला रही थी पिता को
गमजदा दिल लिए हुए पड़ा है
किसी वीरान कोने में
याद कर रहा है वो पल
वो दशहरा ,वो दीपावली
वो रंगा-रंग होली
वो बेटे की बच्चपन वाली ठिठोली,
सब चला गया, सब आँखों के सामने तैर रहा है।
एक हरा - भरा पेड़ बेशाख-शजर हो गया
जिस प'खिलने थे फूल बेबर्ग-शजर हो गया।
Image courtesy -photobucket.com
अँधेरे कोने में बैठा दिले-तन्हा,
दम-ब-खुद सा ,पिता अब
इस दर्द को अपने अन्दर समा रहा है
दी हुई क़ूल्फ़तें अब कबूल कर रहा है
दर्दे-ख्वाब ये नजर आ रहा है, जिन्दगी
जो बची है बिना सहारे के काट रहा है
देखो घर कहीं गुम होने जा रहा है
बेटा, बाप से न्यारा होने जा रहा है।
By
~रोहित~
रोहित भाई उर्दू अलफ़ाज़ के मायने देकर आपने रचना का सम्प्रेषण निश्चय ही बढ़ाया है .बेहद के दर्दे एहसास से पूरित रचना .बधाई .चंद बिंदियाँ (अनुस्वार /अनुनासिक /ध्वनी प्रयोग )हमने हटाएँ हैं गौर करें मूल रचना से फर्क .
(इस कविता का शीर्षक मख्मूर सईदी जी की एक किताब "घर कहीं गुम हो गया" से लिया गया हैं।)
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ReplyDeleteदोस्त हम आपको न सिर्फ फोलो कर रहें हैं बराबर टिपण्णी भी कर रहें हैं आपकी पोस्ट पर .स्पैम से निकालें .
ReplyDeleteमुझे आगाह करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद वीरेंद्र जी, आप मेरे ब्लॉग पर आये इसके लिए कोटि कोटि आभार !! आपकी उपस्थिति मेरे लिए बहुत बड़े मायने रखती है Sir ji :)
Deleteबेहतरीन पंक्तियाँ
ReplyDeleteआज के परिवेश को मुखरित करती आपकी रचना निश्चित रूप से प्रासंगिक है ....!
ReplyDeleteबहुत मार्मिक दिल को छू गई ये पंक्तियाँ बधाई आपको इस सुन्दर रचना के लिए
ReplyDeleteसच्चाई को बयां करती बढ़िया रचना ।
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग में आने के लिए आभार । आपका भी ब्लॉग बहुत बढ़िया है और सारी रचनाये उम्दा हैं ।
प्यारे प्यारे पूत पे, पिता छिड़कता जान ।
ReplyDeleteअपने ख़्वाबों को करे, उसपर कुल कुर्बान ।
उसपर कुल कुर्बान, मनाये देव - देवियाँ ।
करे सकल उत्थान, फूलता देख खूबियाँ ।
पुत्र बसा परदेश, वहीँ से शान बघारे ।
पिता हुवे बीमार, और भगवन को प्यारे ।।
घर घ यही हालात हैं आज ..
ReplyDeleteआपका टिप्पणी करने का ये अंदाज बहुत भाता है रविकर जी ... आप मानो या ना मानो आपकी टिप्पणी का इंतजार मैं कई दिनों से कर रहा था ... लिंक-लिक्खाड़ पर मेरे ब्लॉग का लिंक आना मेरे लिए सोने पर सुहागा है।
ReplyDeleteआपका कोटि कोटि धन्यवाद रविकर जी।
बहुत ही मार्मिक एवं सारगर्भित अभिव्यक्ति। मेरी कामना है कि आप अहर्निश सृजनरत रहें। धन्यवाद।
ReplyDeleteमित्र आपको यहाँ http://mostfamous-bloggers.blogspot.in/ शामिल किया गया है पधारें.
ReplyDeleteबिल्कुल सच कहा है आपने ...
ReplyDeleteसार्थकता लिये सशक्त अभिव्यक्ति
बहुत सुन्दर...मर्मस्पर्शी रचना.
ReplyDeleteआभार
अनु
बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteरोहितास जी, आज के समाज में वृद्ध मातापिता की विडम्बना को दर्शाती रचना .... बहुत प्रभावशाली प्रस्तुति ....शब्द चयन लाजवाब!
ReplyDeletebahut sundar wah
ReplyDeleteउत्कृष्ट अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना, क्या कहने
ReplyDeleteशुभकामनाएं
Shalini jee ne sahi kaha...!!
ReplyDeleteवो बेटे की बच्चपन वाली ठिठोली,
ReplyDeleteसब चला गया, सब आँखों के सामने तैर रहा हैं।......bahut badhiya ....dil ko chhune wali pankti...
कैसी विडम्बना है... :( सच में ! कभी कभी ऐसी हक़ीक़तें बहुत तक़लीफ़देह होतीं हैं....
ReplyDeleteसत्य को बयाँ करती संवेदनशील.... उम्दा रचना
ReplyDeletesach kaa ahsaas
ReplyDeleteउर्दू और हिंदी का एक साथ संयोजन , :)
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (06-02-2020) को 'बेटियां पथरीले रास्तों की दुर्वा "(चर्चा अंक - 3603) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
…
रेणु बाला
छोटे में इतना कुछ कहती हृदय स्पर्शी रचना।
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
अँधेरे कोने में बैठा दिले-तन्हा,
ReplyDeleteदम-ब-खुद सा ,पिता अब
इस दर्द को अपने अन्दर समा रहा है
दी हुई क़ूल्फ़तें अब कबूल कर रहा है
बहुत ही हृदयस्पर्शी बहुत ही लाजवाब
वाह!!!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteघर के बंटवारे और पिता के दर्द की मार्मिक अभिव्यक्ति प्रिय रोहित! ये रचना अविस्मरनीय है मेरे लिए
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