मैं,
साधारण सा कांच
जेसे 'शीशागर' ने बनाया
एकदम पारदर्शी,बिल्कुल साफ
पर ज्यूँ ही तूँ आई इस कांच के सामने
अपनी पारदर्शिता ख़त्म कर ली मैंने,
एक तरफ चाँदी की परत आ गयी हो जेसे
जैसे किसी ने जादू कर दिया हो.
मैंने कैद कर लिया तुम को,
मेरे हर ज़र्रे में समाई हो तुम
दूर से देखना कभी दम-ब-खुद सा पड़ा हूँ
अन्दर झांक कर देखना कभी
तेरा ही अक्स लिए खड़ा हूँ.
तेरे लिए थोड़ा सा बदला हूँ
कांच से बस दर्पण ही बना हूँ।
By-
~*रोहित *~
शीशागर=भगवान(कविता के अर्थ में)/ कांच का सामान बनाने वाला (शाब्दिक अर्थ)
साधारण सा कांच
Image courtesy-Google.com |
एकदम पारदर्शी,बिल्कुल साफ
पर ज्यूँ ही तूँ आई इस कांच के सामने
अपनी पारदर्शिता ख़त्म कर ली मैंने,
एक तरफ चाँदी की परत आ गयी हो जेसे
जैसे किसी ने जादू कर दिया हो.
मैंने कैद कर लिया तुम को,
मेरे हर ज़र्रे में समाई हो तुम
दूर से देखना कभी दम-ब-खुद सा पड़ा हूँ
अन्दर झांक कर देखना कभी
तेरा ही अक्स लिए खड़ा हूँ.
तेरे लिए थोड़ा सा बदला हूँ
कांच से बस दर्पण ही बना हूँ।
By-
~*रोहित *~
शीशागर=भगवान(कविता के अर्थ में)/ कांच का सामान बनाने वाला (शाब्दिक अर्थ)
'तेरे लिए थोड़ा सा बदला हूँ
ReplyDeleteकांच से बस दर्पण ही बना हूँ।'
- तू तू करता तू भया, मुझमें रही न हूं।
वारी फेरी बलि गई जित देखूँ तित तूं।
सुन्दर अति सुन्दर रोहित भाई वाह कोई जवाब नहीं आपका खास कर ये पंक्तियाँ तो बस लाजवाब हैं
ReplyDeleteपर ज्यूँ ही तूँ आई इस कांच के सामने
अपनी पारदर्शिता ख़त्म कर ली मैंने,
एक तरफ चाँदी की परत आ गयी हो जेसे
जैसे किसी ने जादू कर दिया हो.
वो आयी चांदी की परत की तरह...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.....
लाजवाब बिम्ब...
अनु
पर ज्यूँ ही तूँ आई इस कांच के सामने
ReplyDeleteअपनी पारदर्शिता ख़त्म कर ली मैंने,
एक तरफ चाँदी की परत आ गयी हो जेसे
जैसे किसी ने जादू कर दिया हो.
बहुत सुन्दर v सार्थक अभिव्यक्ति .आभार माननीय कुलाधिपति जी पहले अवलोकन तो किया होता
बहुत खूब,सार्थक अभिव्यक्ति,रोहितास जी,,,
ReplyDeleterecent post: बात न करो,
bahut pasand aayi aapki rachna
ReplyDeleteप्रेम को सर्व व्यापी रूप देते सर्वथा नवीन बिम्बों का प्रयोग करके आपने रचना को प्रेम को सर्वयापी सर्व्याप्त कर दिया है .
ReplyDeleteबहुत खूब....कांच से दपर्ण बना..
ReplyDeleteआपका तहे दिल से शुक्रिया गुरु जी. :))
ReplyDelete"तेरे लिए थोड़ा सा बदला हूँ
ReplyDeleteकांच से बस दर्पण ही बना हूँ।" लाजवाब..!!!
बहुत खूब !
ReplyDeleteआईने में दीखता है, मुझे तेरा अक्स,
अश्कों की आखों में झड़ी देखता हूँ।
खुद को देखता हूँ, बिखरते हुए जब,
हाथों में तेरे प्रेम की हथकड़ी देखता हूँ।
बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
bahut accha
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत लिखा वाह बहुत पसंद आया
ReplyDeleteखुद को देखता हूँ, बिखरते हुए जब,
ReplyDeleteहाथों में तेरे प्रेम की हथकड़ी देखता हूँ।
............बहुत ही सुंदर
रोहित जी, बहुत ही खूबसूरत है यह ... काँच का दर्पण बनना... सुन्दर रचना!
ReplyDeleteकांच से दर्पण बना हूँ , कितना बारीक वर्णन |
ReplyDeleteसादर
ReplyDeleteकल 10/12/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
माथुर जी आपका बहुत बहुत आभार।
Deleteकांच से दर्पण का रूपान्तरण ,चांदी की पर्त और शीशे में बस तू ही तू ...बढ़िया बन पड़ी है यह रचना कसावदार बुनावट लिए एक शब्द फ़ालतू नहीं है .
ReplyDeletehttp://bulletinofblog.blogspot.in/2012/12/2012-8.html
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है...
ReplyDeleteसुन्दर-सुन्दर बिम्बों ने रचना में चार चाँद लगा दिए...
बहुत खूब....
:-)
उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteलाजवाब है जी ...आपको पहली बार पढ़ा बढ़िया लगा ...आप भी पधारो मेरे घर पता है ....
ReplyDeletehttp://pankajkrsah.blogspot.com
आपका स्वागत है
कल्पनामई कल्पना !
ReplyDeleteसार्थक शब्दों की अल्पना !
शब्द तूलिका प्रभावपूर्ण !
very nice..bhaiji bahut khoob likhte ho:)
ReplyDeleteअन्दर झांक कर देखना कभी
ReplyDeleteतेरा ही अक्स लिए खड़ा हूँ.
तेरे लिए थोड़ा सा बदला हूँ
कांच से बस दर्पण ही बना हूँ।
वाह!!!!