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खुद ही को खोकर
पूर्णता,लक्ष्य हासिल करना या
जिसे जीना समझे हैं हम
महज मरने की प्रक्रिया थी
पल पहले जो भी था
मैं ख़ाक ही तो हुआ उतना.
सब मरने में लगे है
रोज अपना अपना सफर
तय किये जाते हैं
जितना उग चुके हैं
उतना ही पतझड़ में
झड़ना चाहते हैं
फिर जीना क्या है??
एक बसंती आवरण बनता जाये
उसमें एक कली हो जो कभी खिले ना
पर खिलने को आतुर ही रहे,
एक सफर हो जो तय ना हो
एक अंतहीन संगीत
और राग लगते जाएँ,
जहां क्रियाओं का दोहराव न हो
एक दर्द जिसमें आराम ना हो
इजहार के बाद चैन ना हो
डर ऐसा हो जो लगता रहे,
जीतने वाले ही रहें, जीत ना हो-
वो मुख़्तसर सा लम्हा बना ही रहे,
बदलाव बन न पाए
ताज़गी अमिट हो.
शबनम हो जो सूखने से रहे
ठुलने से न जाये।
यानी एक ठहराव
हर एक ज़र्रे का-
(इसे परम् आत्मा से
मिलन न समझा जावे
ये तो नीरी भूख है
निरन्तर जीने की
लालचन! खोल दर खोल
की भटकन है।)
ये बात शून्य की है
बस शून्य हो जाना
शून्य भी ऐसा कि अथाह शून्य
यही तो मौलिकता है।
जहां से सवाल उठता है
मुखौटे के वजूद का
और उत्तर का कोई छोर नहीं।
- रोहित
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-09-2019) को " आज जन्मदिन पर भगत के " (चर्चा अंक- 3472) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
वाह क्या बात हैं साहब।
ReplyDeleteबहुत दार्शनिक सफर पे निकल चले है इसको पढ़ते पढ़ते।
कई बार सोचा समझा तब कुछ जान समझ पा रहा हूँ।बहुत ही उम्दा दर्ज़े की कविता हैं।आपकी रचनाये परिपक्वता के परवान चढ़ छुटी है।कुछ पंक्तिया जैसे-
जिसे जीना समझे हैं हम
महज मरने की प्रक्रिया थी
और
जहां क्रियाओं का दोहराव न हो
एक दर्द जिसमें आराम ना हो
ये पक्तियां तो जैसे बहुत ही गहरी बात लिये हो।
आपको इस बेहतरीन रचना के लिये बधाई और हमको रूबरू करवाने के लिये आभार।
जितना उग चुके हैं
ReplyDeleteउतना ही पतझड़ में
झड़ना चाहते हैं
:)
hmmmmm...man ko rok liya in panktiyon ne...
bahut hi sehaj bhaaw se gehe bhaaw likh diye...
bdhaayi swikaare
बहुत सुंदर गहरे भाव व्यक्त करती रचना ,सादर
ReplyDeleteबहुत खूब.
ReplyDeleteवाह ! गहन दार्शनिकता का पुट लिए सुंदर रचना..
ReplyDeleteसच ही उत्तर का कोई छोर नहीं ... क्योंकि उत्तर भी तो शून्य है ...
ReplyDeleteजहाँ से माया उपजती है वहीँ उसका अंत भी है ... यही शून्य है ... यही बिंदु है जहाँ सब एकाकार हैं ...
ये बात शून्य की है
ReplyDeleteबस शून्य हो जाना
बहुत ही बेहतरीन रचना
वाह!!रोहिताश जी ,बहुत गंभीर भावों से भरी है आपकी रचना जीवन दर्शन से साक्षात्कार कराती हुई !
ReplyDelete"इजहार के बाद चैन ना हो
ReplyDeleteडर ऐसा हो जो लगता रहे,"
पूरी रचना दर्शन और विज्ञान का आईना, निर्गुण-भाव का भान कराती, सारी गूढ़ पंक्तियाँ कई लोगों ने इंगित किये जो काफी गाढ़ी हैं, उनमे ये पंक्ति भी ध्यान खींचती है ... अलग सोच- अलग बिम्ब ...
ये बात शून्य की है
ReplyDeleteबस शून्य हो जाना
शून्य भी ऐसा कि अथाह शून्य
यही तो मौलिकता है।
जहां से सवाल उठता है
मुखौटे के वजूद का
और उत्तर का कोई छोर नहीं।
आध्यात्म की परतों को खोलती कविता मर्म की गहराईयों में उतरने में सक्षम है.... साधुवाद !
बहुत सुंदर संकलन
ReplyDeleteये बात शून्य की है
ReplyDeleteबस शून्य हो जाना
शून्य भी ऐसा कि अथाह शून्य
यही तो मौलिकता है।
यही तो है जीवन दर्शन ...गहन भावों के साथ अध्यात्म का बेजोड़ संगम लिए अति उत्तम सृजन ।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई
ReplyDeleteवाह ! बहुत ही उत्कृष्ट रचना !
ReplyDeleteजहां क्रियाओं का दोहराव न हो
एक दर्द जिसमें आराम ना हो
इजहार के बाद चैन ना हो
डर ऐसा हो जो लगता रहे,
जीतने वाले ही रहें, जीत ना हो-
वो मुख़्तसर सा लम्हा बना ही रहे,
बदलाव बन न पाए
ताज़गी अमिट हो.
शबनम हो जो सूखने से रहे
ठुलने से न जाये।
सारी कायनात को जैसे रोक कर फ्रीज़ कर दिया आपने ! काश ऐसा कोई लम्हा सच में आ जाए ! बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति ! बधाई स्वीकार करें !
वाह लाजवाब, बहुत गहरी प्रस्तुति , विसंगतियों के सिवा और क्या है जीवन, बस एक जीजीविषा, अंत हीन सफर की ।
ReplyDeleteअनुपम अभिव्यक्ति।
बड़ी गहरी दार्शनिक बातें कहते हो रोहितास जी, हम ठहरे सांसारिक प्राणी - नोन-तेल-लकड़ी की फ़िक्र करने वाले और नेताओं का ज़िक्र करने वाले.
ReplyDeleteफिर भी आपकी रचना अच्छी लगी, लिखते रहिए.
बहुत सुंदर रचना के लिए आपको बधाई। मेरे ब्लॉग पर भी पधारें।
ReplyDeleteiwillrocknow.com
प्रिय रोहितास , अगर आज मैं कहूं इतने गहरे भावों को मैं समझ पा रही हूँ पर उन पर लिखना संभव नहीं हो रहा , तो अतिशयोक्ति ना होगी | एक जीना जो मरने की प्रक्रिया भर है , एक सफर जो तय ना हो , एक कली जो खिलने की प्रक्रिया में ही रहे -- खिले ना -- एक ताजगी जो अमिट हो -- एक दर्द जिसमें आराम ना हो -- डर ऐसा हो जो लगता ही रहे -- ये गहरे भाव एक मनमुग्ध कवि का नूतन जीवन दर्शन है | हो सकता है - चाहते सभी हों और जानते भी सब हों - पर कह पाने में सभी असमर्थ भी हों | सच है एक अधूरापन जब तक रहता है कितनी आशाएं भीतर जीवित रहती हैं , सम्पूर्णता कहीं ना कहीं जीवन के रंगों को फ़ीका तो कर ही देती है | बहुत -- बहुत प्यारी और अपनी ही तरह की अलग सी रचना के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनायें | ये निराला जीवन दर्शन बेजोड़ है | हार्दिक स्नेह के साथ --
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