उस शिखर दोपहर को ऐसा पहली बार देखा
न अँधेरा हुआ न ही धुप रही
जिस दोपहर उस तपते चौराहे पर
हमने आधा एक घंटे में तमाम बातों को याद किया
बिताये हुए पलों की बातें गर्म भाँप की तरह
तन-मन को जलाती रही
हमने मिलते रहने की झूठी कसमें न खाई
दोनों से अलविदा कहने का अभिनय भी न हुआ
तुम बस चली गयी.... नाक की सीध में
तुमने आम आशिक की तरह मुड़कर नहीं देखा
लेकिन मैं ओझल होने तक तकता रहा तुम्हें
चौराहे की चारों राहों पर दौड़कर, घूम-घुमाकर तुमसे एक बार फिर से मिलने की
अमर तमन्ना मन में लिए अब मैं
उस शहर को जिसने हमें मिलवाया
उस चौराहे को जहाँ हम अंतिम रूप से मिले
नाक की सीध वाली सड़क को जो जिंदगी की दरिया का अंतिम चित्र बन गई
उस उजले दिन को जो कभी न ढलेगा और न उदय होगा
- कह न सका "अच्छा तो मैं चलता हूँ"
इस बीच की स्थिति में अजर हो जाना हकीकत में नहीं होना और
कफ़नों में लिपटी छोटी छोटी उम्मीदों का भार तक दूरियों में बँट जाना जीना-मरना भी ना होना
अकेले बीच में ठहर जाना
रोज खालीपन के द्वारा ही निचोड़ा जाना
कहने को तो मैं चला भी आया हूँगोखरू पर चलने जैसा दुःख दायक है।
यहाँ तुम से बहुत दूर
लेकिन ये मेरा अंतिम रूप नहीं है,
हारे हुए आशिक की तरह
उन सब से अभी तक कह नहीं हुआ
"अच्छा तो मैं चलता हूँ।"
मार्मिक
ReplyDeleteजीवन यात्रा के कुछ मोड़ इतने घुमावदार होते हैं कि आगे बढ़ना बेहद कठिन लगने लगता है किंतु फिर भी अनवरत चलते रहना ही जीवित होने का प्रमाण है।
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद आपकी लेखनी से निसृत भावपूर्ण अभिव्यक्ति भाई।
सस्नेह।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १४ जुलाई २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
इस बीच की स्थिति में अजर हो जाना
ReplyDeleteहकीकत में नहीं होना और
कफ़नों में लिपटी छोटी छोटी उम्मीदों का भार तक दूरियों में बँट जाना
जीना-मरना भी ना होना
अकेले बीच में ठहर जाना
जीना मरना भी ना होना... बहुत ही मार्मिक एवं गहन सृजन।
हृदयस्पर्शी सृजन!
ReplyDeleteदिल को छू देनी वाली कविता।
ReplyDeleteहर राह की मंजिल नहीं होती इसी तरह हर रिश्ते का भविष्य नहीं होता। भावनात्मक स्तर पर हर इंसान किसी ना किसी रूप में अधूरे रिश्तों की पीड़ा से गुजरता है।, विरह विगलित हृदय की मर्मांतक अभिव्यक्ति जो किसी अधूरी कहानी की साक्षी है।
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